शुक्रवार, दिसंबर 25, 2020

लीपा शिविर में आग से भीषण तबाही, हज़ारों प्रवासी बेसहारा

 बोसनिया हरज़ेगोविना से विशेष रिपोर्ट 

IOM/Ervin Causevic//बोसनिया हर्ज़ेगोविना में लीपा आपदा शिविर में आग लगने से भीषण तबाही का दृश्य. इस शिविर में लगभग 1400 प्रवासी रह रहे थे। 

24 दिसम्बर 2020//प्रवासी और शरणार्थी//
संयुक्त राष्ट्र समाचार

मानवीय संवेदना जगाने वाले प्रयासों को निरंतरता  रखते हुए इस बार भी संयुक्त राष्ट्र संघ ने लीपा में लगी आग की खबर को प्रमुखता से अपने बुलेटिन में शामिल  किया है। इस संबंध ,में जो विस्तृत जानकारी  दी गई है उसे हम आप तक भी पहुंचा रहे हैं। --सम्पादक इर्द गिर्द 

संयुक्त राष्ट्र के अन्तरराष्ट्रीय प्रवासन संगठन (IOM) ने बताया है कि बोसनिया हरज़ेगोविना में बुधवार को एक प्रवासी शिविर में आग लग जाने के कारण हज़ारों प्रवासी बिना किसी आश्रय स्थल और हिफ़ाज़त के रह गए हैं, जबकि सर्दियों का मौसम होने के कारण तापमान काफ़ी नीचे है। 

प्रवासन एजेंसी ने बताया है कि लीपा आपदा टैन्ट शिविर का लगभग तमाम ढाँचा तबाह हो गया है, उसे बुरी तरह नुक़सान पहुँचा है। 

उस शिविर में लगभग 1 हज़ार 400 प्रवासियों को ठहराया गया था। 

नके अलावा लगभग 1 हज़ार 500 शरणार्थी, जिनमें महिलाएँ और बच्चे भी हैं, आसपास के इलाक़ों में, जंगलों में बनाए हुए शिविरो में फँसे हुए हैं। 

प्रवासन संगठन के अनुसार इस भारी तबाही के बाद, ऐसे लोगों की संख्या लगभग 3 हज़ार हो गई है जिन्हें तुरन्त सहायता की ज़रूरत है। 

बोसनिया हरज़ेगोविना में आईओएम के मिशन प्रमुख पीटर वैन डेर ऑवेराएर्त ने बुधवार को बताया, “ये बहुत तबाही वाला मंज़र है: इन लोगों को इस समय तो आश्रय स्थलों के भीतर, ऐसे  हालात में होना चाहिये था जहाँ सर्दी से बचा जा सके, जैसाकि योरोप के अन्य देशों और क्षेत्रों में, लोग छुट्टियों और त्यौहार के दौर में रह रहे हैं।” 

ये शिविर, बोसनिया हरज़ेगोविना के पश्चिमोत्तर इलाक़े में स्थित है, और ये इलाक़ा क्रोएशिया के साथ मिलने वाली सीमा के निकट है। 

अन्य स्थानों पर ज़्यादा भीड़ होने जाने और अनुपयुक्त हालात बन जाने के कारण, ये शिविर, वर्ष 2020 के शुरू में बनाया गया था। 

मिशन प्रमुख ने कहा, “अनेक कारणों से, और उनमें ज़्यादातर राजनैतिक कारण हैं, इस शिविर में कभी भी जल और बिजली आपूर्ति स्थापित नहीं की जा सकी, और ना ही इस शिविर को सर्दियों का मुक़ाबला करने में सक्षम बनाया गया, और अब आग की तबाही, जिसने तमाम उम्मीदें ख़त्म कर दी हैं। ”

मिशन प्रमुख के अनुसार प्रवासी अब भी स्थानीय इलाक़ों में हैं और उनमें से कुछ तो राजधानी सरायेवो की तरफ़ जाने की योजना बना रहे हैं, जबकि कुछ अन्य प्रवासी, स्थानीय इलाक़ों में ही, समय गुज़ारने का कुछ सहारा तलाश करेंगे। 

उन्होंने कहा कि सबसे ज़्यादा चिन्ता की बात ये है कि कुछ प्रवासी राजधानी सरायेवो और अन्य इलाक़ों में जाने की योजना तो बना रहे हैं, मगर एकल पुरुष प्रवासियों के लिये कहीं भी ठहरने के लिये कोई क्षमता ही नहीं बची है। 

इस कारण, बहुत से लोग सीमा के निकटवर्ती इलाक़ों की तरफ़ जाने को मजबूर होंगे। 

अन्तरराष्ट्रीय प्रवासी संगठन और रैडक्रॉस व डैनिश शरणार्थी परिषद जैसे उसके मानवीय सहायता साझीदार संगठनों ने पहले ही, लगभग 1 हज़ार 500 प्रभावित लोगों को ज़रूरी सामग्री वितरित की है जिसमें सर्दियों में गर्माहट देने वाले कपड़े, कम्बल, खाद्य सामग्री और साफ़-सफ़ाई किटें भी शामिल हैं। 

आईओएम ने कहा है, “हम सामग्री वितरित करने वाली टीमों की संख्या बढ़ाने जा रहे हैं और नई ज़रूरतें पूरी करने के लिये वितरित किये जाने वाली वस्तुओं की संख्या भी बढ़ाई जा रही है।” (संयुक्त राष्ट्र समाचार)

बुधवार, नवंबर 25, 2020

जिसको आप लोग नक्सली हिंसा कहते हैं

 छतीसगढ़ के बस्तर संभाग की सच्ची कहानी 

जब आप बस्तर के महाराजा प्रवीणचंद्र भंजदेव की कहानी पढ़ेंगे तब आप को खुद लगेगा कि हे प्रभु यह कैसा अनर्थ कर दिया अपने! जब हम लोग छोटे थे तो अक्सर यह कहा करते थे एक था राजा और एक थी रानी दोनो मर गए ख़त्म हो गई कहानी ,,,,, लेकिन यह कहानी ख़त्म नही होनी चाहिए लोगोको जानना चाहिए इस राजा की कहानी जिसका बदला आज भी इनके वफ़ादार जनता ले रही हैं! जिसको आप लोग नक्सली हिंसा कहते हैं छतीसगढ़ के बस्तर संभाग की सच्ची कहानी ।

महाराजा प्रवीण ने अपने पूरे आदिवासी एरिया में कभी किसी मिशनरी को आने नहीं दिया था यह  आदिवासियों के सबसे बड़े हितेषी थे

 जब महाराजा प्रवीण चंद्र भंजदेव का विवाह हुआ था तब पूरे भारत से करीब चार लाख से ज्यादा आदिवासी उनके विवाह में शामिल हुए थे

महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी तथा प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव की दूसरी संतान “प्रवीरचंद्र भंजदेव” जो बस्तर रियासत काल के आखरी शासक हुए, इनका जन्म 25 जून 1929 को हुआ।

इनकी माता महारानी प्रफुल्ल कुमारी जो कि बस्तर की महिला शासिका थी, उनकी असमय और रहस्यमय निधन के पश्चात लंदन में ही ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा 6 वर्षीय प्रवीरचंद्र भंजदेव का औपचारिक राजतिलक कर दिया गया। बारह साल बाद जब प्रवीर 18 साल के हो गए तब उन्हें पूर्ण रूप से राज्याधिकार दे दिए गये। इसी साल सरदार वल्लभ भाई पटेल ने छत्तीसगढ़ के सभी चौदह रियासतों से बातचीत कर भारतीय संघ में विलयन के लिए दस्तखत करवा लिए। 15 अगस्त को भारत स्वतन्त्र हुआ और 1 जनवरी 1948 को बस्तर रियासत आधिकारिक रूप से भारतीय संघ के अंतर्गत मध्य प्रान्त का हिस्सा हो गया। राजशाही सत्ता के समर्पण के बाद जेहन में जो दर्द था वो दोगुना हो गया जब 13 जून 1953 को उनकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत ले ली गयी।

वाटसप के प्रतीक ग्रुप से साभार 
हालांकि अब भारत एक संघीय राष्ट्र हो गया था पर तब भी बस्तर की आदिवासी जनता प्रवीर चंद्र को ही अपना राजा व प्रतिनिधि मानती थी। आदिवासियों को कोई भी परेशानी होने पर प्रवीर को ही सबसे पहले याद किया जाता था।

जनता का आशीर्वाद मिलता रहा और कांग्रेस के जिला अध्यक्ष बनने के साथ-साथ प्रवीर चंद्र 1957 के आम चुनाव में भारी मतों से जीतकर विधानसभा पहुँचे। अभी प्रवीर चंद्र को विधानसभा सदस्य के तौर पर दो साल ही हुए थे कि उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया।

इस्तीफा देते ही मानो कांग्रेस सरकार प्रवीरचंद्र की जानी दुश्मन हो गई

11 और 12 फरवरी 1961 को पहले उन्हें राज्य विरोधी होने के नाम पर गिरफ्तार किया गया फिर प्रवीर की बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता भी समाप्त कर दी गयी इसके साथ ही प्रवीर के ही छोटे भाई विजयचन्द्र भंजदेव को भूतपूर्व शासक होने के अधिकार दे दिये गये।

प्रवीर के आंदोलनों के ऊपर हिंसक होने के साथ साथ लोकतंत्र के प्रति असहिष्णु होने के भी आरोप लगते रहे। इन सब अव्यवस्था और अशांति के बावजूद जनता प्रवीर के ही साथ थी। भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त करने के विरोध में जब आदिवासियों द्वारा लौहंडीगुड़ा और सिरिसगुड़ा में प्रदर्शन किया तब शासन ने बड़े ही निर्मम तरीके से बीस हज़ार के भीड़ पर गोली बरसाई थी। लौहण्डीगुड़ा का यह गोली कांड अब भी अपने साथ दर्द से भरे अनगिनत कहानी समेटे हुए है।

जब संवैधानिक तरीके से प्रवीरचंद्र ने दिया जवाब 

फरवरी 1962 को जब विधानसभा चुनावों का परिणाम आया तब कांकेर तथा बीजापुर को छोड कर पूरे बस्तर में महाराजा प्रवीर चंद्र को समर्थित पार्टी के प्रत्याशी विजयी रहे। 30 जुलाई 1963 को प्रवीर की सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गयी। सन् 1963 से लेकर 1966 तक प्रवीर चंद्र ने बस्तर की जनता के लिए खूब आवाज़ उठाए, कई आंदोलन कई अनशन किया गया। अब जनता आश्वस्त थी कि उनको सुनने वाला कोई है।

जब राजमहल पर गोलिया चलाई गई

25 मार्च 1966 की सुबह जब सैकड़ो लोग अलग अलग गांव से जैसे कोंटा, उसूर, सुकमा, छिंदगढ, कटे कल्याण, बीजापुर, भोपालपटनम, कुँआकोंडा, भैरमगढ, गीदम, दंतेवाडा, बास्तानार, दरभा, बकावण्ड, तोकापाल लौहण्डीगुडा, बस्तर, जगदलपुर, कोण्डागाँव, माकडी, फरसगाँव, नारायनपुर से महाराजा के महल पहुँचे थे। इतनी बड़ी संख्या का एक कारण सालों की रही एक परंपरा भी थी। अनेकों गाँवों के माझी ‘आखेट की स्वीकृति’ अपने राजा से लेने आये थे और चैत्र के नवरात्र में आदिवासी कुछ बीज राजा को देते है फिर वही बीज वो खेत मे बुआई के दौरान उपयोग करते है। चैत्र और वैशाख के दिनों में में एक मान्यता ऐसी भी है जिसमे आदिवासी शिकार से पहले राजा से आज्ञा लेने आते हैं इसीलिए उस दिन वहां मौजूद शिकारियों ने अपने साथ धनुष – बाण भी रखा था। जिनमे से ज्यादातर धनुष – बाण तो चिड़िया मारने के लिए काम आने वाले थे।

भीड़ को देखते ही आनन फानन में पुलिस द्वारा राजमहल परिसर को घेर लिया गया और आत्मसमर्पण के लिए कहा गया। लोग कुछ समझ पाते उससे पहले आँसू गैस छोड़ी गई और थोड़ी देर में पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। तभी भगदड़ शुरू हो गयी और सभी लोग महल के अंदर चले गए। पुलिस ने फायरिंग नहीं रोकी तब आदिवासियों ने भी आत्म रक्षा के लिए धनुष-बाण थाम लिए। दोपहर होते होते सब शांत होने लगा था फिर भी इक्का दुक्का फायरिंग अभी भी जारी थी। बीच बीच मे धमाकों की भी आवाज़ सुनाई दे रही थी। लाउडस्पीकर में लगातार आत्मसमर्पण के लिए कहा जा रहा था। कहा गया कि निहत्थे लोगों पर गोली नहीं चलाई जाएगी। महाराजा प्रवीर के कहने पर करीब डेढ़ सौ महिलाएं बच्चों के साथ आत्मसर्पण के लिए महल से बाहर जाने के लिए तैयार हुए। उनके महल से बाहर आते ही उनको घेर लिया गया और उनपर लाठियां बरसाई जाने लगी। अब महल के अंदर जितने लोग थे उनका आत्मसर्पण से विश्वास उठ गया था। 

अभी भी माहौल शान्त नहीं हुआ था तभी एक गाड़ी महल की तरफ आती दिखी और एक बार फिर से प्रवीर और महल के अंदर आश्रितों को आत्मसर्पण के लिए कहा गया। प्रवीर महल के अंदर से निकल कर अब बरामदे में आ गए थे। तभी अचानक से फायरिंग शुरू हो गयी और एक गोली सीधे आकर प्रवीर को लगी। गोली प्रवीर चंद्र के जांघ में आ धसी थी। अब पुलिस महल के अंदर घुस चुकी थी और अब फायरिंग महल के अंदर भी सुनाई देने लगी थी।

आदिवासियों ने बड़े संघर्ष के साथ पुलिस को अपने महाराजा के शयनकक्ष में जाने से रोक रखा था लेकिन धनुष – बाण बंन्दूक के सामने कब तक टिकती। पुलिस अब प्रवीर चंद्र के कक्ष के अंदर दाखिल हो गयी। बस्तर के महाराजा प्रवीर चंद्र मार डाले गए। अब महल के अंदर मौजूद आदिवासी उग्र हो चुके थे और महल रणभूमि में बदल चुकी थी।

रात से सुबह हो चुकी थी पर संघर्ष रुकने का नाम नहीं ले रही थी। गोलियों की आवाज़ सुबह चार बजे तक सुनाई दे रही थी।

26 मार्च को करीब ग्यारह बजे जिलाधीश और पुलिस के बड़े अधिकारी महल महल के अंदर गए। पार्थिव शरीर को कक्ष से निकाला गया और उसी शाम प्रवीर चंद्र का अंतिम संस्कार किया गया। 

आज तक आप लोग एक तरफा कहानी सुनते थे जो अखबार में निकला या सरकार ने बताया परन्तु आज हमने उस सिक्के के दूसरे पहलू को दर्शाने का प्रयास किया है । इस दावे के साथ कि जो लिखा है सत्य लिखा है कैसे एक राजा को मारा गया और उसकी जनता को नक्सली बनाया गया । कौन असली दोसी हैं निर्णय आप खुद ले। वन्देमातरम 

आपका अपना आदिवासियों का संघर्ष 

मनोज श्रीवास्तव

राष्ट्रीय अध्यक्ष

भारतीय केसरिया वाहिनी

+91 9389577220

शुक्रवार, सितंबर 11, 2020

ग्रामीण भारत में बदलाव

11-October, 2017 15:02 IST
 महात्मा गाँधी के सपनों का भारत हम सभी की ज़िम्मेदारी 
  विशेष लेख                                                                                                    *वी.श्रीनिवास  
यह तस्वीर Giving  Compass से साभार 
तीव्र गति से कृषि और ग्रामीण रोजगार विकास हमेशा से देश के नीति निर्माताओ के केंद्र में रहे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारत की परिकल्पना स्वायत्त आत्मनिर्भर गांवो के लोकतंत्र के रूप में की थी। भूमि, ग्रामीण अस्तित्व और कृषि ढांचा भारत के विकास के सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक हैं। जमीन का असमान वितरण खेती के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार था। ग्रामीण भारत में जमीन के महत्वपूर्ण आय का साधन होने को देखते हुए ग्रामीण जनसंख्या की समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए खेती के अधिकार ढांचे में बदलाव आवश्यक था। 
लेखक
इसलिए देश की नीति, राज्य सरकार द्वारा भूमि सुधार कानूनो को बनाने और इनका क्रियान्यवन करने पर केंद्रित हुई। इनमें भूमि की अधिकतम सीमा, काश्तकारी और भूमि राजस्व अधिनियम और खेतीहर नीति में भूमि को विस्तृत रूप में सम्मिलित करना था। अधिक कृषि योग्य सरकारी भूमि निर्धनो और जरूरतमंद खेतीहरो को आजीविका के लिए वितरित की गई। इन नीतियो की परिकल्पना कृषि विकास को प्रोत्साहन देने और ग्रामीण निर्धनता को समाप्त करने के लिए की गई। 
जुलाई 1969 में बैंको के राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की गतिविधियो का बड़े स्तर पर विस्तार किया गया। सामाजिक बैंकिग नीति के रूप में ग्रामीण क्षेत्रो में बैंको की शाखाओ का तेजी से विस्तार, कृषि और इससे जुडे कार्यों के लिए लिए बैंक ऋण का विस्तार, प्राथमिक आधार पर ऋण देने और ब्याज दरो की शुरूआत की गई। ग्रामीण क्षेत्रो में बैंको की शाखाओ के विस्तार ने ग्रामीण निर्धनता में कमी लाने और गैर-कृषि वृद्धि के विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हालांकि समय बीतने के साथ राज्यो में विकास के स्तर में अतंर महसूस होने लगा। समृद्ध और तेजी से प्रगति कर रहे राज्य जहां ग्रामीण निर्धनता में कमी लाने में सफलता रहे, वहीं निर्धन राज्यो में विकास दर अस्थिर रही। तेजी से विकास कर रहे राज्यो ने जहां जमीन के पट्टो को निवेश,उत्पादन और वृद्धि के लिए प्रयोग करने हेतु एकीकरण कानून बनाए, वहीं निर्धन राज्यो में छोटे और मझौले किसानो की खेती से दूरी और इसके बाद उनके भूमिहीन कृषि मजदूर बनने ने उन्हें बाजार की अनिश्चितता पर पूरी तरह से निर्भर कर दिया। वर्षा पर आधारित खेती वाले क्षेत्रो में बड़े स्तर पर श्रमिको का पलायन देखा गया है। समृद्ध राज्यो ने निर्धन राज्यो के मुकाबले अधिक निवेश और आधारभूत ढांचे का विकास किया। जिससे परिणामस्वरूप इन राज्यो में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि दर्ज की गई।
राज्यों ने ग्रामीण क्षेत्रो के लिए कई कल्याणकारी कार्यक्रमो का क्रियान्वयन किया। इनमें रेगिस्तान विकास कार्यक्रम, सूखाग्रस्त विकास क्षेत्र कार्यक्रम और कृषि विकास कार्यक्रम शामिल हैं। इन कार्यक्रमों को विकेंद्रीकृत भागीदारी विकास मॉडल पर लागू किया गया। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य विस्तृत कृषि क्षेत्र का विकास चैक डैम और चारागाहो का निर्माण कर और पशु पालन गतिविधियो का विकास करना था। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में दूसरी फसल से कृषि श्रमिकों के लिए अधिक आय और कम प्रवास के लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित किया गया।
राज्यों ने कई प्रत्यक्ष लाभकारी कार्यक्रम प्रारम्भ किये जिनका उद्देश्य आय में वृद्धि,कौशल विकास, रहने के लिए घर और रोजगार सृजन था। ग्रामीण विकास विभाग ने प्रमुख योजनाओं राष्ट्रीय रूर्बन मिशन, प्रधामंत्री आवास योजना (पीएमएवाई), प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (पीएमजीएसवाई),दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना (डीडीयूजीकेवाई) और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम(एमजीएनआरईजीए) कार्यक्रमों का क्रियान्वयन किया। मनरेगा के अखिल भारतीय स्तर पर क्रियान्वयन से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और आय सृजन में महत्वपूर्ण परिणाम देखे गए। फरवरी, 2016 में प्रारम्भ किए गए राष्ट्रीय रूर्बन मिशन के अंर्तगत प्रत्येक गांववासी को शहरी जीवन का अनुभव दिलाने और उन्हें शहरी सुविधाओं का लाभ दिलाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। डीडीयूजीकेवाई के अंतर्गत 15 से 35 आयुवर्ग के निर्धन परिवारों के युवाओं पर ध्यान केद्रित कर उनकी आय के अन्य साधन का विकास कर युवाओं के रोजगार संबंधी आशा पूरी की गई।
भारतीय किसान हमेशा से ऋण की उचित दरों और समय पर मिलने के प्रति चितिंत रहे है। इस दिशा में उठाए गए प्रमुख कदमों का उद्देश्य वित्तीय रूप से सबको शामिल करना था। प्रधानमंत्री जनधन योजना वित्तीय सेवाओं तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करने के राष्ट्रीय मिशन को दर्शाती है। जनधन योजना ने बैकों में वंचित जनसंख्या तक ऋण सुविधा पहुंचाने संबंधी आवश्यक आत्मविश्वास जगाया है। जिसके फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रो में दिए जाने वाले ऋण में महत्वपूर्ण वृद्धि प्रदर्शित हुई है।
भारत जैसे विशाल देश को खाद्य उत्पादन तीव्र गति से बढ़ाने की आवश्यकता है। वर्ष 2016-17 के दौरान अब तक का सबसे अधिक खाद्य उत्पादन हुआ और यह 273.38 मिलियन टन के रिकार्ड स्तर पर पहुंचा। यह पिछले पांच वर्षों के औसत उत्पादन से 6.37 प्रतिशत अधिक है और वर्ष 2015-16 के मुकाबले 8.6 प्रतिशत अधिक है। केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 में मृदा के विश्लेषण के उद्देश्य से देश से सभी किसानों को द्ववार्षिक आधार पर मृदा स्वास्थ्य कार्ड (एसएचसी)जारी करने की योजना की शुरूआत की। इसके साथ ही देश भर की खुदरा 885 कृषि उत्पादन विपणन समितियों को समान ई-प्लेटफार्म के द्वारा जोड़ने के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-एनएम) की शुरूआत की। इस पोर्टल को कई भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराया गया है जिससे किसानों को महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकेगी। राज्य सरकारें सभी प्रकार की फसलों में जोखिम को कवर करने वाले और उन्नत सिंचाई योजनाओं को प्रोत्साहन देने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के क्रियान्वयन के लिए तेजी से प्रयास कर रही है।
केंद्र सरकार के किसानों को सशक्त करने और गांव स्तर पर आधारभूत ढांचे में सुधार संबंधी कार्यक्रमों ने गरीबी को कम करने और स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी सूचकांको में सुधार लाने में सफलता मिली है। कृषि आय में सुधार और सब्सिडी हस्तातरंण में पारदर्शिता से 21 वी सदी के भारत का निर्माण होगा। 
(PIB11-October, 2017 15:02 IST
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*वी श्रीनिवास 1989 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी है और वर्तमान में राजस्थान कर बोर्ड के अध्यक्ष पद और राजस्थान राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष का अतिरिक्त कार्यभार संभाल रहे हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत है।   

शनिवार, अगस्त 15, 2020

अफ़गानिस्तान में लगातार बढ़ रहा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को खतरा

Saturday: 15th August 2020 at 5:59 AM
 इस वर्ष अगस्त महीने तक ही मृतकों का आँकड़ा बढ़ गया है 
14 अगस्त 2020//मानवाधिकार 
अफ़ग़ानिस्तान में इस वर्ष की शुरुआत से अब तक नौ मानवाधिकार कार्यकर्ता अपनी जान गंवा चुके हैं जिसे संयुक्त राष्ट्र की एक स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने चिन्ताजनक रूझान बताया है। शुक्रवार को यूएन विशेषज्ञ मैरी लॉलॉर ने अफ़ग़ान प्रशासन से मौतों के इस सिलसिले को रोके जाने का आग्रह किया है। 
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के हालात पर विशेष रैपोर्टेयर मैरी लॉलॉर ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में पिछले साल की तुलना में इस वर्ष अगस्त महीने तक ही मृतकों का आँकड़ा बढ़ गया है। 

उन्होंने तीन अन्य स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों के साथ एक साझा बयान जारी कर कहा कि दण्डमुक्ति की भावना से इस तरह के अपराधों को बढ़ावा मिल रहा है और यह दर्शाता है कि समाज में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भूमिका की अहमियत को नहीं पहचाना जाता। 

विशेष रैपोर्टेयर के मुताबिक पिछले मामलों की जाँच-पड़ताल में कोई नतीजा नहीं निकला है. उन्होंने मानवाधिकारों के इस जघन्य उल्लंघन की पूर्ण जवाबदेही तय किए जाने की ज़रूरत को रेखांकित किया है। 

असमतुल्लाह सलाम देश के ग़ज़नी प्रांत में शिक्षा के अधिकार को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत थे लेकिन 1 अगस्त को परिवार के साथ ईद मनाने के लिए जाते समय उन्हें अगवा किए जाने के बाद उनकी हत्या कर दी गई। 

उनकी मौत से कुछ ही समय पहले फ़ातिमा नताशा खलील और अहमद जावेद फ़ौलाद को 27 जून को तब जान से मार दिया गया जब वे अफ़ग़ानिस्तान में स्वतंत्र मानवाधिकार आयोग में काम के लिए जा रहे थे।  

मानवाधिकार कार्यकर्ता इब्राहिम एब्रात की मई महीने में ज़ाबुल में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। 

इन घटनाओं से चिन्तित विशेषज्ञों ने कहा, “जनवरी में, अफ़ग़ान सरकार ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रक्षा के लिए राष्ट्रीय संरक्षण तंत्र के सृजन के विचार को अपना समर्थन दिया था. लेकिन अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है और स्पष्ट है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए पहले की तुलना में हालात बेहतर नहीं हैं।”

“हम सरकार से वायदे के अनुरूप एक असरदार राष्ट्रीय संरक्षण प्रणाली को तात्कालिक रूप से स्थापित करने का आग्रह करते हैं।"

उन्होंने कहा है कि अफ़ग़ान प्रशासन को समय रहते कार्रवाई करनी होगी और कार्यकर्ताओं को धमकियाँ या डराए-धमकाए जाने की रिपोर्टों पर तत्काल कार्रवाई करनी होगी। 

साथ ही हिंसा और मौतों के मामलों की गहराई में जाकर जाँच करना भी अहम होगा. विशेषै रैपोर्टेयर ने कहा है कि वे अफ़ग़ानिस्तान में प्रशासन से इस सम्बन्ध में बातचीत कर रहे हैं और हालात की निगरानी की जाती रहेगी। 

स्पेशल रैपोर्टेयर और वर्किंग ग्रुप संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा हैं. ये विशेष प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार व्यवस्था में सबसे बड़ी स्वतंत्र संस्था है. ये दरअसल परिषद की स्वतंत्र जाँच निगरानी प्रणाली है जो किसी ख़ास देश में किसी विशेष स्थिति या दुनिया भर में कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है. स्पेशल रैपोर्टेयर स्वैच्छिक रूप से काम करते हैं; वो संयक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और उन्हें उनके काम के लिए कोई वेतन नहीं मिलता है. ये रैपोर्टेयर किसी सरकार या संगठन से स्वतंत्र होते हैं और वो अपनी निजी हैसियत में काम करते हैं।

शनिवार, अगस्त 01, 2020

Covid-19:बहुत से वैज्ञानिक सवालों का जवाब ढूँढ लिया गया है

1st August 2020 at 5:53 AM
 लेकिन अनेक सवाल अब भी अनुत्तरित हैं 
31 जुलाई 2020//स्वास्थ्य
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वैश्विक महामारी कोविड-19 को एक ऐसा स्वास्थ्य संकट क़रार दिया है जो सदी में एक ही बार आता है और जिसके प्रभाव आने वाले कई दशकों तक महसूस किए जाते रहेंगे। इस मुद्दे पर  30 जनवरी 2020 को यूएन स्वास्थ्य एजेंसी की आपात समिति ने कोविड-19 को अन्तरराष्ट्रीय चिन्ता वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा घोषित किए जाने की सिफ़ारिश की थी जिसके छह महीने पूरे होने पर शुक्रवार, 31 जुलाई, को समिति ने फिर बैठक कर मौजूदा हालात की समीक्षा की है। 

जनवरी 2020 में अन्तरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियामक आपात समिति ने पहली बार कोरोनावायरस संकट पर चर्चा की थी जिसके बाद समिति  चौथी बार मिल रही है।  

शुक्रवार को आपात समिति को सम्बोधित करते हुए यूएन स्वास्थ्य एजेंसी के महानिदेशक डॉक्टर टैड्रॉस एडहेनॉम घेबरेयेसस ने कहा कि छह महीने पहले आपात समिति की सिफ़ारिश पर ही अन्तरराष्ट्रीय स्वास्थ्य एमरजेंसी की घोषणा की गई थी। 

उस समय चीन से बाहर किसी संक्रमित की मौत नहीं हुई थी और महज़ 98 मामलों की ही पुष्टि हुई थी।  

“यह वैश्विक महामारी एक सदी में एक बार आने वाला स्वास्थ्य संकट है जिसके प्रभाव आने वाले कई दशकों तक महसूस किए जाते रहेंगे।”

उन्होंने कहा कि बहुत से वैज्ञानिक सवालों का जवाब ढूँढ लिया गया है लेकिन अनेक सवाल अब भी अनुत्तरित हैं। 

कुछ अध्ययनों के शुरुआती नतीजे दर्शाते हैं कि विश्व की अधिकाँश आबादी पर अब भी इस वायरस से संक्रमित होने का जोखिम मंडरा रहा है, उन इलाक़ों में भी जहाँ पहले ही व्यापक स्तर पर संक्रमण का फैलाव हो चुका है। 

“बहुत से देश जिनका मानना था कि अब वे ख़राब हालात से गुज़र चुके हैं, उन्हें भी नए फैलाव से जूझना पड़ रहा है।” 

“शुरुआती हफ़्तों में जो देश कम प्रभावित थे अब वहां तेज़ी से संक्रमणों व मौतों की संख्या बढ़ रही है। व्यापक स्तर पर संक्रमणों का सामना करने वाले कुछ उन पर क़ाबू पाने में सफल रहे हैं।”

यूएन एजेंसी प्रमुख ने स्पष्ट किया है कि असरदार वैक्सीन को विकसित करने के प्रयास तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं लेकिन हमें इस वायरस के साथ रहना सीखना होगा, और मौजूदा औज़ारों के साथ इससे लड़ना होगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अब तक छह बार अन्तरराष्ट्रीय चिन्ता वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति की घोषणा की है:
- एच1एन1 (2009)
- पोलियो (2014)
- पश्चिम अफ़्रीका में इबोला (2014)
- ज़ीका (2016)
- काँगो लोकतांत्रिक गणराज्य में इबोला (2019)
- कोविड-19 (2020) 
अन्तरराष्ट्रीय चिन्ता वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य एमरजेंसी की घोषणा के तहत यूएन स्वास्थ्य एजेंसी कुछ अस्थाई सिफ़ारिशें जारी करती है।

ये अनुशंसाएं बाध्यकारी नहीं होती हैं लेकिन व्यावहारिक व राजनैतिक रूप से ऐसे उपायों के रूप में होती हैं जिनसे यात्रा, व्यापार, मरीज़ को अलग रखे जाने, स्क्रीनिंग व उपचार पर असर पड़ता है। 

साथ ही यूएन एजेंसी इस संबंध में वैश्विक मानक स्थापित कर सकती है। 
खबर के साथ दी गई तस्वीर ग़ाज़ा की एक मस्जिद में कोविड-19 से ऐहतियाती उपायों के तहत सफ़ाई किये जाने के मौके पर UNDP PAPP/Abed Zagout ने क्लिक की। 

रविवार, मई 03, 2020

इस बार कैसे दें मज़दूर दिवस की बधाई-पूछा है अनीता शर्मा ने

Sunday: 3rd May 2020 at 2:31 PM  
मज़दूर तो कोरोना महामारी के कारण घरों में भूखे बैठे है-अनीता शर्मा 
लुधियाना: 1 मई 2020: (कार्तिका सिंह//इर्द गिर्द डेस्क):: 
कामरेड कुलदीप बिन्द्र ने इस तस्वीर को सीपीआई के
वाटसप ग्रुप में मज़दूर दिवस के मौके पर पोस्ट किया
अनीता शर्मा फाईल फोटो 
मज़दूर की मेहनत और उसके बनते हक पर बहुत पहले जनाब फ़ैज़ अहमद फैज़ साहिब ने एक गीत लिखा था जो उसकी लूट की चर्चा भी करता था और उसके मज़बूत इरादों को भी दर्शाता था। गीत के शुरूआती बोल हैं:
हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे;
इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे!
मज़दूरों ने अपने अपने झंडे तले इस गीत को बार बार गाया और दोहराया। हर वर्ष पहली मई को मज़दूर दिवस के मौके पर लगने वाली स्टेजों पर इस गीत का गायन बहुत ही जोशो खरोश से हुआ करता। सन 1983 में जब "मज़दूर" फिल्म आई तो इस गीत को उसमें भी शामिल किया गया। दलीप कुमार, राज बब्बर और अन्य कलाकारों पर इस गीत के बोलों को बहुत ही खूबसूरती से पिक्चराईज़ किया गया। गीत के बोलों और कलाकारों के इशारों का समन्वय बेहद अर्थपूर्ण रहा। उस फिल्म से यह गीत उन तक भी  पहुंचा जिन्होंने इसे पेहे न कभी सुना था न ही कभी पढ़ा था। इस तरह यह गीत समाजवाद की फिलासफी ले कर घर घर तक पहुंचा। लेकिन पूंजीवाद अपनी चाल चलता रहा। बड़ी बड़ी मशीनें बनी, मोटर कारें बनी, कम्प्यूटर बने और कामकाज बेहद आसान भी हो गया। इसके बावजूद मज़दूर को इसका फायदा न हुआ। फायदा सिर्फ मालिकों को ही पहुंचा। अमीर और ज़्यादा अमीर होता चला गया और गरीब और ज़्यादा गरीब होता गया।  मशीनीकरण के बावजूद मज़दूर के काम के घंटे आठ से कम न हुए। बहुत जगहों पर तो उससे आठ से भी कहीं ज़्यादा काम लिया जाता रहा। ट्रेड यूनियनों ने जो जो कुछ किया उसकी झलक भी कई बार फिल्मों में नज़र आती रही। एक सवाल बहुत लोकप्रिय हुआ कि गरीबों के लिए उनकी लड़ाई लड़ने वाले खुद कैसे अमीर हो जाते हैं और गरीब रास्ते की धुल बन कर कहां खो जाते हैं? रास्ते की धुल बन कर खो गए मज़दूर की बात की है बेलन ब्रिगेड की राष्ट्रिय प्रमुख अनीता शर्मा ने। 
उन्होंने याद दिलाया है इस बार 2020 का मज़दूर दिवस उस वक्त आया है जब सारी दुनिया में कोरोना का आतंक और शोर है। कारोबार बंद हैं। फ़ैक्ट्रियन बंद हैं। बहुत बड़ी संख्या में रेलें और बसें भी बंद हैं। मज़दूर कोरोना महामारी के कारण घरों में बैठे हैं। करीब 40 दिन हो गए हैं उन्हें घर बैठे हुए। उनके सामने यही रास्ता बचा कि या तो भूख से तेदेपा तेदेपा कर दम तोड़ दें और या फिर पैदल ही अपने अपने गांव की तरफ चल पड़ें। मज़दूरों ने पैदल चलने को पहल दी। सैंकड़ों किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने गांवों में उन्हें अपना भविष्य सुरक्षित नज़र आया। बरखा दत्त, आरिफा खानुम और बहुत ऐसे अन्य पत्रकारों ने उनके इंटरव्यू सड़कों पर खुद हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करके लिए हैं। मुख्य धरा का मीडिया जिन हकीकतों को छुपा रहा था इन जांबाज़ पत्रकारों ने उन हकीकतों को जनता के सामने रखा। आने वाले वक़्त में इन छोटी छोटी वीडियो खबरों को बहुत बड़ी अहमियत मिलेगी। किसी डॉक्यूमेंट्री से कम नहीं हैं यह कवरेज। 
बेलन ब्रिगेड की राष्ट्रीय अध्यक्ष आर्किटेक्ट अनीता शर्मा ने बताया कि कोरोना वायरस के कारण हर गली- मोहल्ले और शहर में इस कड़वी हकीकत को देखा जा सकता है। देश भर के इलाकों में जो मज़दूर लोग  फैक्ट्रियों में बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन में दिन रात काम करके अपना और अपने परिवार का पेट पालते थे आज घरों में बैठने को मजबूर हो गए हैं। जो मज़दूरहर रोज़  400-500 रुपये की मज़दूरी  करता था आज लंगर की लाईन में लगने को मजबूर है। ऐसे मज़दूरों के हालात हमारे देश में बहुत दयनीय हो चुके हैं।  
मज़दूरों की हालत बताते हुए मैडम अनीता शर्मा ने कहा कि इन मज़दूरों के पास बीमार होने पर दूध दवाई के लिए पैसे तो क्या घर में खाने के लिए राशन तक नहीं है। बहुत सारे मज़दूरों के पास  नीले पीले राशन कार्ड  नहीं है। कोई बैंक अकाउंट भी नहीं है। लेबर डिपार्टमेंट में उनकी कोई रजिस्ट्रेशन भी नहीं है और सरकार की तरफ से गरीब लोगो के लिए जो राशन आ रहा है वह भी इन तक नहीं पहुंचता। उस राशन को सरकारी अफसर, इलाके के नेता पार्षद विधायक मजदूरों व गरीबो में बांटने की जगह अपने अपने चहेतो सपोर्टरो में ही बांट रहे हैं।  
अनीता शर्मा ने आगे कहा कि जो लोग कॉरपोरेट फैक्ट्रियों के मालिक हैं और जिन मज़दूरों की बदौलत आज वे आलिशान कोठियों में बैठे है उन मज़दूरों को कम से कम पेट भरने के लिए राशन तो उनके घरो तक पहुंचाने का बंदोवस्त करें ताकि कोरोना महामारी के बाद जब ये लोग काम पर लौटेगे तो आपकी इस मदद का दोगुना ज्यादा लाभ देंगे।  आज लेबर डे पर इंसानियत के नाते हर  नागरिक का फर्ज बनता है कि इस कोरोना महामारी के हालात में अपने आस पड़ोस में रहने वाले गरीब मजदूरों को दो वक्त की रोटी खिला कर उनकी मदद करे। मज़दूरों के बेहतर भविष्य के लिए एक विशेष स्थायी फंड भी कायम किया जाना चाहिए। 

गुरुवार, अप्रैल 30, 2020

मज़दूरों पर छाया कोरोना और भूख का साया

हर कोने में परेशान बैठे मज़दूर मांग रहे हैं गांव वापिस जाने की सहायता 
लुधियाना: 29 अप्रैल 2020:(एम एस भाटिया//प्रदीप शर्मा इप्टा//इर्द गिर्द डेस्क)::
जिन मज़दूरों ने कभी मांगना नहीं सीखा था। जिनको केवल आपने हाथों की सच्ची मेहनत पर भरोसा था। इसी मेहनत के बल पर वह जोश में आ कर गाते:
हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे!
इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे!
फ़ैज़ साहिब का लिखा यह गीत बहुत गहरी बातें करता है। बहुत ऊंचे इरादों को दर्शाता है। इस गीत में आगे जा कर शायर ने जो कुछ कहा है बहुत गहरे जाते हैं। उन पकंतियों में इरादे भी हैं, सपने भी और उन सपनों को साकार करने की हिम्मत भी। इन पंक्तियों को पढ़िए और मज़दूर की बाज़ुओं का अनुमान लगा लीजिये।  लीडरों के बयानों में शायद आपको कभी कभार कमज़ोरी या समझौतों की बात नज़र आ जाये लेकिन मज़दूर तो पूरी तरह समर्पित भी है और शिद्द्त से उस तरफ अग्रसर भी है। इस लिए इनको ज़रूर देखिये। अब पढ़िए ज़रा वो पंक्तियां जो लिखे  लेकर अब तक हर मज़दूर की  ज़ुबान पर हैं: 

यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं;
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे!

वो सेठ व्‍यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड़;
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे!

जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में कत्‍ल हुए;
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे! इस गीत को मज़दूर बिगुल ने अपने ढंग से प्रस्तुत किया और बहुत खूबसूरती से किया। देखें उसकी एक झलक:
इस गीत को फिल्मों में भी फिल्माया गया। वहां भी यह गीत बहुत लोकप्रिय भी हुआ। यह बात अलग है की वहां बोल कुछ आसान कर दिए गए। फिल्म मज़दूर में यह गीत बहुत ही अच्छे तरीके से पिक्चराइज़ किया गया। फ़िल्मी गीत के तौर पर भी यह बहुत हिट हुआ था। 
बहुत से स्टेजों पर इसका मंचन भी हुआ। भविष्य भी इसी तरह का लगने लगा लेकिन अचानक कोरोना का माहौल किसी खतरनाक और अदृश्य बम की तरह प्रकट हुआ। शाहीन बाग़ जैसे अंदोलन भी रोकने पड़े और  भी। हमारे दुश्मनों के लिए तो कोरोना किसी सुनहरी अवसर की तरह आया। मज़दूरों को मांगना पड़ गया। अन्नदाताओं को मांगना पड़ गया। कोरोना के इस माहौल ने मज़दूरों की बेबसी और बढ़ा दी। लॉक डाउन मार्च महीने के आखिर में शुरू हुआ था। मार्च महीने की 25 तारीख को लॉक डाउन का पहला दिन था। तब तक मज़दूरों को उनके वेतन नहीं मिले थे। दिहाड़ीदार लोगों के घरों में राशन भी ज़्यादा नहीं होता। दो चार दिन में ही भूखे मरने की नौबत आने लगी। सरकार की तरफ से बहुत से प्रचार हुए। बहुत से नंबर जारी किये गए। कुछ बारसूख़ लोगों ने राशन भी बंटवाया और अपनी अपनी फोटो भी खिंचवाई। इस सारी प्रक्रिया में राशन पहुंचा सिर्फ बारसूख़ लोगों के अपने अपने जानकार घरों में। ज़रूरतमंद  लोग फिर भूखे रह गए। 
उनका दर्द किसी ने समझा तो बस मज़दूर संगठनों ने। मज़दूर संगठनों ने अपने बलबूते भी अपने फंड एकत्र किया और समाजिक संगठनों से भी सम्पर्क किया तब कहीं जा कर बहुत से ज़रूरतमंद घरों में राशन पहुंचा। इस सारे प्रयास के बावजूद वह राशन एक दो सप्ताह तक ही चला। राशन घटता गया और ज़रूरतमंद लोगों की संख्या बढ़ती गई। मज़दूर संगठन भी इतना राशन लाते? उनको भी वेतन नहीं मिले थे। बहुत से लोग सिर्फ पेंशन पर हैं। इसके बावजूद दर्द का यह रिश्ता काम आया और लोग एक दुसरे के लिए कुछ न कुछ करते रहे। इस दर्द को दर्शाती बहुत सी सच्ची कहानियां सामने आयीं। इन सच्ची कहानियों के बावजूद हकीकत बेहद कठिन और कड़वी होती चली गई। दूध नगद लेना पड़ता। बुखार हो तो दवा-दारू भी नगद ही मिलता। सब्ज़ी भी नगद लेनी पड़ती। गैस सिलेंडर भी सभी तक तो नहीं पहुंचे। मज़दूरों के परिवार हिम्मत हारते चले गए। किसी के गाँव में उसके पिता ने दम तोड़ दिया, किसी की बेटी चल बसी, किसी के मां बीमार हो गई और किसी के भाई को बुखार ने जकड़ लिया। एटक के लोग उन्हें गांव जाने के लिए कर्फ्यू पास बनवाने में मदद करते रहे लेकिन सैंकड़ों किलोमीटर दूर जाना आसान कहां था? शहर से बाहर जाती टैक्सियों पर कीमतों का कोई नियंत्रण नहीं था। नवयुवा उम्र की 17 वर्षीय बेटी का देहांत हह गया तो अमेठी जाने के लिए टेक्सी वाले ने 18 हज़ार रूपये मांगे। यह पैसे उस मज़दूर ने गांव पहुंच कर अपने गहने बेच कर दिए। यहां न कोई धर्म कर्म करने वाला समाजिक संगठन काम आया और न ही कोई सरकार काम आई। न ही वोटें मांगने वाले किसी नेता ने उसका हाल पूछा और न ही तीर्थ यात्रायें करवाने वाले लोगों में से किसी ने उसके पास आ कर पूछा-भाई अपनी बेटी को आखिरी विदा देने कैसे जाओगे? मज़दूर की बेबसी उसकी बेटी की जान भी ले गयी। उसकी बेटी बुखार से तड़पती रही, पापा पापा पुकारती रही लेकिन उसका मज़दूर पापा उसके पास उसके जीते जी नहीं पहुंच सका। इस सारी कहानी को आप पढ़ सकते हैं हमारे सहयोगी डिजिटल प्रकाशन कामरेड स्क्रीन में बस यहां क्लिक कर के। काम आया तो मज़दूर संगठन एटक। एटक के लोगों ने सारा प्रबंध किया। फिर भी एक टीस तो हमेशां उसके उसके दिल में रहेगी ही। मज़दूर के दिल में छुपी यह आहें ही एक दिन तूफ़ान बन कर उठेंगी। कोरोना के कहर से भी मज़दूरों और किसानों की क्रान्ति नहीं रुकने वाली। यह हो कर ही रहेगी। इसका यकीन आज भी हर मज़दूर के दिल में है। 
आज वह कोरोना के हालात से परेशान है। उसका  तो अपने वेदों के मुताबिक हमें जीने के लिए दो वक़्त का राशन दे दो या हमें अपने गांव जाने के लिए किसी बस/ट्रक/गाड़ी का प्रबंध कर दो। हमें कोरोना के चैंबर में भूख से मरने के लिए मत छोडो। 
तकरीबन 485 मज़दूरों के लिए राशन और पैसों की मांग को लेकर कुछ मज़दूर प्रतिनिधि एटक के नेताओं से मिलने पहुंचे। उन्हें एक स्थानीय स्कूल में ठहरया गया जहाँ उन्होंने मीडिया को भी अपना दर्द बताया। जितने मज़दूर प्रतिनिधि यहां पहुंचे उनके पीछे उनके घरों/कमरों में दस-दस,बीस बीस लोग थे। सोशल डिस्टेंस का नियम भंग न हो इस लिए यह उन सभी को यहाँ नहीं लाये। क्या दावों के मुताबिक इन मज़दूरों का कुछ बनेगा? इन्हें राशन मिलेगा? इन्हें अपने घर वापिस जाने के लिए कोई वाहन मिलेगा?इनका कहना यही है या हमें राशन दो या हमें वापिस भेज दो। समस्या बेहद विकराल है। 
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यह भी अवश्य पढ़िए बस यहां नीचे दिए गए हर एक नीले लिंक पर क्लिक कर के एक अलग पोस्ट:
मई दिवस:यह एक गाथा है...पर आप सबके लिए नहीं!
जनाब कैफी आज़मी साहिब की एक दुर्लभ रचना-लेनिन
कोरोना के इस बेबसी युग से और मज़बूत होगी मज़दूर लहर
Lock Down: बेटी दम तोड़ गई और बाप वक़्त पर पहुंच भी न सका 
परछाइयाँ//जनाब साहिर लुधियानवी
आप जरा खुद आ कर देखिये ...!

शुक्रवार, अप्रैल 10, 2020

जो परिवार चटनी के साथ चावल मिलाकर खाता है

अब सोचिये वो सेनिटाइजर कहाँ से खरीदेगा !
लॉक डाउन आवश्यक था। लॉक डाउन आवश्यक है। इसी से लड़ा जा सकेगा कोरोना के साथ। इस लड़ाई में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। इसके साथ ही आवश्यक है उन सवालों की चर्चा जिनकी चिंता न किसी राजनीतिक दल ने की और न ही किसी समाजिक संगठन ने। इन सवालों को उठाया है डा. अनुराग आर्य ने। आप भी देखिये ज़रा एक नज़र:
सोशल मीडिया//फेसबुक: शुक्रवार:10 अप्रैल 2020: 10:45 AM:: (इर्द गिर्द डेस्क की प्रस्तुति)
जो परिवार चटनी के साथ चावल मिलाकर इसलिए खाता है क्योंकि इस समय मसालों के लिये उसके पास पैसे नही है। अब सोचिये वो सेनिटाइजर कहाँ से खरीदेगा।
सेनिटाइजर उसके लिए लक्ज़री है। एक बड़ी आबादी के पास पीने और इस्तेमाल करने के लिये साफ पानी नही है उनसे हम कैसे कहेगे के साबुन से हाथ 20 सेकंड तक धोते रहिये। दूर गांव कस्बो के दिहाड़ी मजदूरो के आंकड़े देखने की जरूरत नही है।
अपनी कालोनी के बाहर बैठे चौकीदार को देखिए ,फल सब्जी बेचते लोगो को देखिए इस पेंडेमिक ने इनके जीवन पर कितना असर डाला होगा । रिक्शा ,ऑटोरिक्शा ना जाने कितने लोग।
ऑस्ट्रेलिया से मेरा दोस्त जब पेंडेमिक में वहां की टेस्टिंग की गाइडलाइन की बात करता है ,मैं कालोनी की गली में टहलते टहलते मुंह पर मास्क बंधे चौकीदार को देखता हूँ उससे कहता हूं यहां दूसरी बड़ी चुनोतियाँ है जिसका भारत जैसे और कई देशों को सामना करना है।
असंगठित क्षेत्रो में दिहाड़ी मजदूर की संख्या आप इमेजिन नही कर सकते ,ऐसे समय मे जब निजी उद्योग वाला भी लगातार दूसरे महीने अपने उधोग और कर्मचारियों की तनख्वाह को लेकर थोड़ा चिंतित हुआ हैं। मजदूरो की क्या हालत होगी आप सोचिये।

हम कहते है ये बीमारी सिर्फ बुजुर्गो को ज्यादा नुकसान पहुंचाती है क्योंकि उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम है ।हमारे यहां के कुपोषित बच्चों और टी बी ग्रस्त आबादी के बारे में सोचिये ,एक कमरे में बसर करते 6 लोगो के बारे में के उन्हें कैसे बतायेगे सोशल डिस्टेंसिंग क्या है ?
तो क्या केवल पैसे वाले लोग सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट की लड़ाई देर तक लड़ेंगे गर पेंडेमिक उसी इंफेक्टिविटी से इस देश मे आया तो ।
लेखक:डा. अनुराग आर्य 
मैं आंकड़ो और ग्राफ से बहुत सी डिटेल आपके सामने बात को अधिक प्रभावी बनाने के लिए रख देता पर वो महत्वपूर्ण नही है ,महत्वपूर्ण था ये बात आपको बताना।
P.S -ब्रिटेन की 32 साल की एक डॉक्टर कहती है उसने रेड कलर के शूज़ अपने आप को" चीयर" करने के लिये पहने है क्योंकी उस पर हस्पताल ने ये जिम्मेदारी दी है के वो लोगो को बताये के कहाँ म्रत्यु का सामना करना पसंद करेंगे घर पर या अस्पताल में। वो बाथरूम में जाकर रो रो कर थक गई है।

मेरे पास मरीज़ों की, डॉक्टर की कई नई कहानियां है पर मैं उन्हें आज दोहराना नही चाहता इसलिए कुछ उम्मीदों की तस्वीरें लगा रहा हूँ। कुछ के नीचे उनकी डिटेल है। 
डा. अनुराग आर्य की फेसबुक Wall से साभार 
(लॉक डाउन की तस्वीर पत्रकार संतोष पाठक ने 10 अप्रैल 2020 को बाद दोपहर खींची)

मंगलवार, अप्रैल 07, 2020

सीरिया:अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का पालन करने में विफल रहे युद्धरत पक्ष

लड़ाई के दौरान अस्पतालों और नागरिक प्रतिष्ठानों को नहीं बख़्शा गय
कोरोना के दौर में भी मानवाधिकारों के उलंघन पर नज़र//6 अप्रैल 2020//मानवाधिकार
सीरिया में दसवें साल में प्रवेश कर चुके बर्बर गृहयुद्ध में शामिल पक्ष अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत तय दायित्वों को पूरा कर पाने में विफल रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने सोमवार को सीरिया में बोर्ड ऑफ़ इन्क्वायरी की रिपोर्ट के सारांश की जानकारी देते हुए बताया कि लड़ाई के दौरान अस्पतालों और नागरिक प्रतिष्ठानों को नहीं बख़्शा गया है। महासचिव ने बोर्ड ऑफ़ इन्क्वायरी द्वारा तैयार 185 पन्नों की एक रिपोर्ट का सारांश सुरक्षा परिषद को भेजा है।
यह बोर्ड 1 अगस्त 2019 को पश्चिमोत्तर सीरिया में संयुक्त राष्ट्र की मदद प्राप्त राहत केंद्रों और अन्य नागरिक प्रतिष्ठानों के हमले में निशाना बनाए जाने के बाद स्थापित किया गया था। 
ये हमले उन स्थानों पर किए गए जो उस सूची में शामिल हैं जिनमें उल्लेखित स्थानों को सैन्य ठिकानों के रूप में निशाना नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वे या तो स्वास्थ्य केंद्र हैं या फिर पूरी तरह से नागरिक प्रतिष्ठान हैं, या फिर संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित हैं।
महासचिव गुटेरेश ने सुरक्षा परिषद को लिखे पत्र में कहा है कि पश्चिमोत्तर सीरिया में असैनिक व मानवीय राहत स्थलों पर लड़ाई के प्रभाव स्पष्ट रूप से अंतरराष्ट्रीय मानवीय राहत क़ानूनों का पालन करने का ध्यान दिलाते हैं। 
युद्ध के दौरान आम नागरिकों व लड़ाकों, नागरिक प्रतिष्ठानों और सैन्य ठिकानों के बीच भेद करना अनिवार्य है और सैनिक ठिकानों व लड़ाकों पर ही हमले किए जा सकते हैं।
लेकिन महासचिव ने बताया है कि अनेक रिपोर्टों के मुताबिक संबंधित पक्ष इसका पालन करने में विफल रहे।
उन्होंने कहा कि आतंकवाद का मुक़ाबला करने के लिए सदस्य देशों द्वारा उठाए जाने वाले क़दम अंतरराष्ट्रीय मानवीय राहत क़ानूनों, मानवाधिकार क़ानूनों और शरणार्थी क़ानूनों के अनुरूप होने चाहिए। 
बोर्ड ऑफ़ इन्क्वायरी में तीन सदस्य शामिल थे और इसकी अध्यक्षता नाइजीरिया के रिटायर्ड लैफ़्टिनेंट चिकिबिदिया ओबियाकोर ने की थी। 
17 सितंबर 2018 को रूस और तुर्की ने इदलिब में हालात को स्थिर बनाने के लिए एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। 
पश्चिमोत्तर सीरिया के इदलिब प्रांत में विद्रोही गुट सक्रिय हैं। 
इस सहमति पत्र के बाद भी अनेक घटनाएं सामने आई थीं जिनके बाद जॉंच के लिए बोर्ड ऑफ़ इन्क्वायरी का गठन किया गया। 
अपनी रिपोर्ट और उसमें उल्लेखित सिफ़ारिशें यूएन महासचिव को एक ऐसा आधार प्रदान करती है जिसकी मदद से संगठन के मानवीय राहत संसाधनों की बेहतर सुरक्षा व प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए उपायों की शिनाख़्त की जा सकती है।  
रिपोर्ट तैयार करते समय बोर्ड ऑफ़ इन्क्वयारी ने कोई क़ानूनी निष्कर्ष नहीं पेश किए हैं और ना ही क़ानूनी दायित्वों से संबंधित सवालों पर विचार किया है। 
लेकिन रिपोर्ट के सारांश के मुताबिक जिन स्थलों का जायज़ा लेने के लिए कहा गया था उनमें से किसी भी स्थान पर जाने में बोर्ड असमर्थ साबित हुआ क्योंकि इसके लिए सीरिया सरकार ने उन्हें अनुमति नहीं दी। 
संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों व संस्थाओं, ग़ैर-सरकारी संगठनों, प्रत्यक्षदर्शियों और सैटेलाइट तस्वीरों सहित अन्य स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर छह अलग-अलग स्थानों पर हुए हमलों को विस्तार से समझने का प्रयास किया गया है।  
बोर्ड ने बताया कि अब मिली सूचना की पृष्ठभूमि में कहा जा सकता है कि 3 मई 2019 को इदलिब गवर्नरेट के रकाया प्राथमिक चिकित्सा देखभाल केंद्र पर हमले के पीछे सीरियाई सरकारी सुरक्षा बलों का हाथ होने की प्रबल संभावना है।  
उन्होंने कहा कि यह संभव है कि हमा गवर्नरेट के कफ़्र नबूथा में एक स्वास्थ्य केंद्र पर 7 मई 2019 को हुए हमले में क्षतिग्रस्त होने के पीछे सरकार और उसके साझीदारों का हाथ है।   
14 मई 2019 को एलेप्पो एयरपोर्ट के पास नायराब फ़लस्तीनी शरणार्थी कैंप पर हमले में 11 लोगों की मौत हुई थी और 29 लोग घायल हुए थे। 
बोर्ड ऑफ़ इन्क्वायरी ने संभावना जताई है कि ये हमले या तो हथियारबंद विरोधी गुटों द्वारा किए गए थे या फिर इन्हें चरमपंथी गुट हयात तहरीर अल-शाम ने अंजाम दिया था जिसे सुरक्षा परिषद ने आतंकवादी संगठन घोषित किया हुआ है।   
बोर्ड के मुताबिक इदलिब गवर्नरेट के कफ़्र नोबोल सर्जिकल अस्पताल के 4 जुलाई 2019 को क्षतिग्रस्त होने की वजह सरकार और उसके साथियों द्वारा कार्रवाई हो सकती है। 
इसकी ‘प्रबल संभावना’ जताई गई है लेकिन इस संबंध में पुख़्ता सबूत उपलब्ध नहीं हैं।    
बोर्ड ऑफ़ इन्क्वायरी बताती है कि इसकी संभावना प्रबल है कि इदलिब गर्वनरेट में एक बाल संरक्षण केंद्र पर 28 जुलाई 2019 को हमला सरकार या उसके समर्थकों द्वारा किया गया था। 
बोर्ड ने ज़ोर देकर कहा है कि पर्याप्त सबूतों के अभाव में किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। 
बोर्ड ऑफ़ इन्क्वायरी ने हमा गर्वनरेट में अस-सुक़िलाबियाह में राष्ट्रीय अस्पताल पर 26 मई 2019 को हुई सातवीं घटना का निरीक्षण नहीं किया है। 
ना तो यह संयुक्त राष्ट्र की सूची में शामिल है और ना ही उसे संगठन से समर्थन प्राप्त है।  

मंगलवार, मार्च 03, 2020

कोई फरिश्ता मिल गया था सरे राह चलते चलते......

 पहली मार्च 2020 को सुबह 9:21 पर पोस्ट किया
विजय जी जैसे लोग मिसाल है कि इंसानियत अभी मरी नही
कल रात एक बहुत अच्छी घटना हुई मेरे साथ। 
प्रतीकत्मक तस्वीर स्काईपॉवर से साभार 
रात को 1:15 पर मैं दिल्ली से गुड़गांव अपने घर लौट रहा था कि कापसहेड़ा बॉर्डर से गुड़गांव में घुसने के 5 मिनट बाद अचानक बाइक खराब हो गई। सुनसान सड़क, सोचा कि बाइक कहि पार्क करके कैब से घर जाया जाए। लेकिन बाइक खड़ी करने की कोई सेफ जगह नही मिल पाई तो मैंने बस स्टैंड पेड पार्किंग तक 4 किलोमीटर पैदल चलने का फैंसला लिया। मैं परेशान होकर मन मे विचार कर रहा था क्या मैं ऐसे सुबह तक भी अपने घर सेक्टर-103 में पहुच पाउगा जो कि 12 किलोमीटर दूर है। अभी कुछ दूर ही चला था कि एक मारुति कंपनी में 8 वर्ष से कार्यरत 30 वर्षीय अलवर राजस्थान के विजय बोहरिया जी नाम के बाइक सवार फरिश्ते ने जॉब से लौटते वक्त खुद बाइक रोक कर पूछा कि कोई मदद चाहये क्या। मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने कहा कि धन्यवाद आप रात के डेड बजे बिना डर खोंफ के एक अनजान की मदद को आए। आपका मैं किन शब्दो मे धन्यवाद करू.... विजय जी से बात करके पता चला कि विजय जी सेक्टर 105 की तरफ ही जा रहे है जो कि मेरे घर से केवल 2 किलोमीटर दूर है। विजय जी और मैंने फैंसला लिया कि क्योकि बाइक पार्क करने की कोई सेफ जगह नही है तो विजय जी मेरी बाइक को अपनी बाइक से पैर से धक्का लगाएगे और हम बस स्टैंड पेड पार्किंग में बाइक खड़ी करके उनकी बाइक पर सेक्टर 105 की तरफ निकल पड़ेगे। ऐसा हुआ भी और मैं रात के 2 बजे तक अपने घर विजय जी द्वारा सुरक्षित पहुचा दिया गया। विजय जी से बात करके पता चला कि विजय जी आप बहुत शरीफ इज्जतदार इंसान है। 
विजय जी जैसे लोग मिसाल है कि इंसानियत अभी मरी नही। कुछ लोग अपनी जान की बाजी लगाकर रिस्क लेकर दूसरों की मदद करने को आज भी ततपर है। विजय जी आपको मैं वचन देता हूं कि जीवन मे कभी कोई कष्ट आए तो मुझ नाचीज इंसान को एक बार आज़मा कर देख लेना। 
विजय जी आपकी हर जायज मदद को सदैव तत्पर---🙏🏼
विनीत लूथरा
बाइक को पीछे अपनी बाइक से पैर से धक्का लगाना 
विनीत लूथरा जी के फेसबुक प्रोफाईल से साभार 

 कुछ अन्य दिलचस्प लिंक:
छत्तीसगढ़ मेल में पढ़िए:
आराधना टाईम्ज़ में पढ़िए:
मोहाली स्क्रीन में पढ़िए:


रविवार, जनवरी 26, 2020

लाल किले में आज भारत पर्व 2020 का रंगारंग उद्घाटन

प्रविष्टि तिथि: 26 JAN 2020 8:38PM by PIB Delhi
कार्यक्रम 31 जनवरी तक चलेगा-प्रवेश निशुल्क होगा 
भारत पर्व 2020 का मुख्य विषय ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ और ‘महात्मा गांधी की 150वीं जयंती समारोह’
भारत की छवि को पेश करने के लिए वार्षिक कार्यक्रम भारत पर्व का आयोजन दिल्ली में किया गया है। पर्यटन मंत्रालय के विशेष सचिव और वित्त सलाहकार श्री राजीव कुमार चतुर्वेदी ने आज नई दिल्ली के लाल किले के मैदान में नगाड़ा बजाकर और तिरंगे गुब्बारों को उड़ाकर भारत पर्व का उद्घाटन किया। उद्घाटन समारोह के दौरान पर्यटन महानिदेशक श्रीमती मीनाक्षी शर्मा, पर्यटन उपमहानिदेशक श्रीमती रूपिन्दर ब्रार और मंत्रालय के अन्य वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे। 
उद्घाटन समारोह के बाद सशस्त्र बलों के बैंड ने शानदार प्रदर्शन किया। इसके बाद उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किया गया।
भारत पर्व 2020 लाल किले के सामने ज्ञान पथ और लाल किले के मैदान में 26 से 31 जनवरी, 2020 तक मनाया जा रहा है। भारत पर्व का उद्देश्य भारतीयों को प्रोत्साहित करना है कि वे भारत के विभिन्न पर्यटन स्थलों की यात्रा करें और भारतवासियों में ‘देखो अपना देश’ की भावना पैदा हो सके। भारत पर्व के दौरान 50 से अधिक फूड-स्टॉल, 27 दस्तकारी/हथकरघा स्टॉल और 27 विषय आधारित मंडपों को स्थापित किया गया है।
भारत पर्व 2020 का मुख्य विषय ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ और ‘महात्मा गांधी की 150वीं जयंती समारोह’ है। भारत पर्व जनता के लिए 26 जनवरी, 2020 को 5 बजे सांय से लेकर 10 बजे रात तक खुला रहेगा। शेष दिनों में 27 से 31 जनवरी, 2020 को दोपहर 12 बजे से रात 10 बजे तक यह कार्यक्रम खुला रहेगा।
भारत पर्व में गणतंत्र दिवस परेड की झांकियां, सशस्त्र बलों के बैंड प्रदर्शन, राज्य सरकारों/ केंद्रशासित प्रदेशों और मंत्रालयों के पर्यटन मंडप, राज्य सरकारों/ केंद्रशासित प्रदेशों के दस्तकारी और हथकरघा स्टॉल, ट्राइफेड/ दस्तकारी/हथकरघा आयोग के स्टॉल, राज्य सरकारों, होटल प्रबंधन संस्थानों और अन्य संगठनों के फूटकोर्ट, उत्तर-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा राज्य सरकारों/ केंद्रशासित प्रदेशों/ होटल प्रबंधन संस्थानों द्वारा खान-पान प्रदर्शन मुख्य आकर्षण हैं।
भारत पर्व में प्रवेश निशुल्क है और आगंतुकों को प्रवेश करने के लिए अपना पहचान पत्र दिखाना होगा। (PIB)
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आर.के.मीणा/आरएनएम/एकेपी/सीएस-5486

शुक्रवार, जनवरी 10, 2020

कलम वाले कलम की साधना को मज़बूत बनाएं

भाषा को सियासत की साज़िशों का शिकार न होने दें 
लुधियाना: 10 जनवरी 2020: (कार्तिका सिंह//इर्द गिर्द डेस्क):: 
भाषा को सम्मान देने की बजाये उसे हथियार बना लिया गया है। सियासत एक बार फिर अपनी नापाक चाल चल रही है। कभी पंजाबी के खिलाफ, कभी अंग्रेजी के खिलाफ और कभी हिंदी के खिलाफ। कुल मिला कर इन खतरनाक साज़िशों का खतरनाक प्रभाव मानवता पर ही पड़ता है। समाज के टुकड़े करने वाले इसका फायदा उठाते हैं। सियासत वाले लोग तो गुंडागर्दी भी कर सकते हैं। किसी न किसी भाषा पर कालख भी पोत सकते हैं, किसी भाषा प्रेमी की हत्या भी कर सकते हैं। लेकिन कलम वाले तो इनकी तरह नहीं सोच सकते। इसके बावजूद उन्हें और दृढ़ बनना होगा। कलम की साधना को और और मज़बूत बनाना होगा। भाषा को समाज के फायदे का ज़रिया बनाना होगा न कि विघटन का। भाषा समाज की एकता के काम आये न कि सियासत का हथियार बने। आज विश्व हिंदी दिवस पर हम इस बात  संकल्प कर सकें तो सचमुच बहुत ही अच्छा होगा। इस विशेष दिवस पर प्रस्तुत है मेरी एक काव्य रचा जिसे शब्द भास्कर ने पुरस्कृत भी किया था। 
हर ह्रदय में प्रेम का जिसने दीप जलाया; हिंदी है!  
दिल को दिल से जोड़ के जिसने देश बनाया; हिंदी है।
कदम से कदम मिला के जिसने साथ निभाया; हिंदी है।

कई धर्म थे, कई वर्ग थे, रोज़ ये झगड़े आम हुए,
हर ह्रदय में प्रेम का जिसने दीप जलाया; हिंदी है।

उर्दू फारसी कठिन बहुत थे, इंग्लिश भी आसान न थी,
 झट से आ कर इक जादू जिसने सिखलाया; हिंदी है।

पढ़ने लिखने की हर दिल में ललक उठे; आसान न था,
हर ह्रदय को जोड़ के जिसने जोश जगाया; हिंदी है।

हर इक हाथ में इक पुस्तक और लोग दीवाने पुस्तक के,
हर पुस्तक को हर इक तक जिसने पहुंचाया;हिंदी है।

दुनिया का उत्कृष्ठ साहित्य; पढ़ा है मैंने हिंदी में;
मुझको हर लेखक से जिसने आ मिलवाया; हिंदी है।

हिंदी देश की बिंदी है; यह सच है; इसको मान भी लो,
आज यहां भी हम सबको जिसने मिलवाया; हिंदी है।
                                                    ---कार्तिका सिंह 

शनिवार, जनवरी 04, 2020

नहीं रहे भगीरथ नाथ चोपड़ा

शोकाकुल परिवार के पास पहुंचे परवीन बांसल और अन्य 
लुधियाना: 4 जनवरी 2020: (रेक्टर कथूरिया और इर्द गिर्द डेस्क)::
ज़िंदगी इतनी भागदौड़ करवाती है कि सांस तक ले पाना कठिन सा लगने लगता है। इतने झमेलों में से एक छोटी सी उम्र को चुरा पाना भी कभी कभी नामुमकिन सा लगने लगता है। ऐसे में अगर कोई अच्छा दोस्त मिल जाये तो नामुमकिन भी मुमकिन जैसा लगने लगता है। कुछ इसी तरह मिले थे मित्र प्रदीप चोपड़ा जी। टीवी चैनल की नौकरी। हमारे रात्रि शिफ्ट वाले ग्रुप को खबरों के बुलेटिन तैयार करते करते आधी रात हो जाती। टीवी चैनल से घर लौटना आधी रात के समय बहुत मुश्किल सा था। हालांकि चैनल की अपनी वैन भी थी जो मुझे घर छोड़ कर आती थी लेकिन कभी कभी उसका ड्राइवर रात की रोटी खाने चला जाता तो उसकी इंतज़ार के बिना कोई चारा न होता। एक रात इसी तरह ड्राईवर की इंतज़ार में चाय की चुस्कियां ले रहा था कि अचानक प्रदीप चोपड़ा जी सामने से आते नज़र आए। शायद उनके हाथ कोई देर शाम या रात को कोई बड़ी खबर लग गई थी। आते ही बोले मैं ज़रा फुटेज जमा करवा लून फिर मेरे साथ ही घर चलना। हम दोनों का घर एक दुसरे के काफी नज़दीक है इसका पता मुझे उसी दिन चला। ऊन बाज़ार जिसे पहले पहल मोच पुरा कहा जाता था और आजकल उसे ट्रंकों का बाजार भी कहा जाता है। उस बाजार के एक तरफ चोपड़ा जी का घर और एक तरफ हमारा घर। रास्ते की गलियों में अब छोटे छोटे बाजार खुल गए थे। उन्हीं दुकानों  में आती थी प्रदीप चोपड़ा जी के भाई की दुकान। हौज़री का काम था। प्रदीप जी के पिता जी भी अक्सर उसी दूकान पर बैठते।  कभी दुकान पर और कभी घर पर उनसे मिलना होता। बहुत ही प्यार और अपनत्व से सब का हालचाल पूछते। आशीर्वाद देते। साथ ही उनके चेहरे पर मुस्कराहट और चमक बढ़ जाती। बहुत मुश्किल था उनके सामने कोई झूठ बोल पाना। प्रदीप जी को कहीं ले जाना होता तो कोई न कोई बहाना सोचना पड़ता था। इस तरह उनके साथ एक स्नेह भी था और बड़ों की शख्सियत वाला डर भी था। उनके पास बैठ कर ज़िंदगी की चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत आती। अब वह नहीं रहे ,हिम्मत कौन देगा यह सवाल गंभीर बन कर खड़ा हो गया है।
मुझे याद है प्रदीप जी बताया करते थे। जब सभी भाईयों को उनका हिस्सा मिल गया तो बाकी बचे प्रदीप जी। अब इतनी दुकानें भी कहाँ से आतीं? परदीप जी ने पिता से पूछना मेरा क्या बनेगा? जवाब मिलता सबसे अच्छा। एक दिन प्रदीप जी ने पूछ लिया वह कैसे? मेरे हिस्से में तो दुकान ही नहीं बची। पिता जी बोले मैं तुझे एक नहीं कई दुकानें दूंगा। वास्तव में उन्होंने प्रदीप जी को अकाऊंट्स का काम सिखा दिया। बोले जहां जा कर भी काम करेगा समझना वह तेरी दुकान ही है। उसे बेगाना न समझना। अपना समझ कर ही काम करना।  सारा  इसी हिसाब किताब पर निर्भर होता है। आज प्रदीप चोपड़ा जी के पास बहुत सी फर्में अर्थात बहुत सी दुकानें हैं। उनके पिता मान्यवर भगीरथ नाथ चोपड़ा की की क्रिया बाजवा नगर के वेद मंदिर में थी। गरुड़ पुराण के पाठ का भोग और रस्म पगड़ी भी थी। मंदिर के हाल में आज कितने लोग आये--कितनी भीड़ थी--कैसे पूरा हाल भरा हुआ था--काश वह देख पाते। लग भी रहा था जैसे अभी कहीं से आ जायेंगे और उसी मनमोहक  मुस्कान से हम सब को हौंसला देंगें।  
प्रदीप चोपड़ा जी और परिवार के अन्य सदस्यों का दुःख बांटने के लिए हम सभी लोग भी पहुंचे। मेरे साथ डाक्टर भारत (एफ आई बी मीडिया), पत्रकार-सतपाल सोनी, पत्रकार एम एस भाटिया और कुछ अन्य लोग भी थे। हाल में बहुत से समाजिक और राजनीतिक लोग भी पहुंचे हुए थे। राजनीतिक और समाजिक चेतना को जगाने में अतिसक्रिय राजीव मल्होत्रा भी विशेष तौर पर पहुंचे हुए थे। टीवी चैनलों में कैमरामैन की ज़िम्मेदारी निभाने वाले मुकेश डोगरा भी आए। मानवता के दर्द को महसूस करने वाले पत्रकार जय कुमार भी अपनी टीम के साथ आये हुए थे। -रेक्टर कथूरिया