गुरुवार, अप्रैल 30, 2020

मज़दूरों पर छाया कोरोना और भूख का साया

हर कोने में परेशान बैठे मज़दूर मांग रहे हैं गांव वापिस जाने की सहायता 
लुधियाना: 29 अप्रैल 2020:(एम एस भाटिया//प्रदीप शर्मा इप्टा//इर्द गिर्द डेस्क)::
जिन मज़दूरों ने कभी मांगना नहीं सीखा था। जिनको केवल आपने हाथों की सच्ची मेहनत पर भरोसा था। इसी मेहनत के बल पर वह जोश में आ कर गाते:
हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे!
इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे!
फ़ैज़ साहिब का लिखा यह गीत बहुत गहरी बातें करता है। बहुत ऊंचे इरादों को दर्शाता है। इस गीत में आगे जा कर शायर ने जो कुछ कहा है बहुत गहरे जाते हैं। उन पकंतियों में इरादे भी हैं, सपने भी और उन सपनों को साकार करने की हिम्मत भी। इन पंक्तियों को पढ़िए और मज़दूर की बाज़ुओं का अनुमान लगा लीजिये।  लीडरों के बयानों में शायद आपको कभी कभार कमज़ोरी या समझौतों की बात नज़र आ जाये लेकिन मज़दूर तो पूरी तरह समर्पित भी है और शिद्द्त से उस तरफ अग्रसर भी है। इस लिए इनको ज़रूर देखिये। अब पढ़िए ज़रा वो पंक्तियां जो लिखे  लेकर अब तक हर मज़दूर की  ज़ुबान पर हैं: 

यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं;
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे!

वो सेठ व्‍यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड़;
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे!

जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में कत्‍ल हुए;
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे! इस गीत को मज़दूर बिगुल ने अपने ढंग से प्रस्तुत किया और बहुत खूबसूरती से किया। देखें उसकी एक झलक:
इस गीत को फिल्मों में भी फिल्माया गया। वहां भी यह गीत बहुत लोकप्रिय भी हुआ। यह बात अलग है की वहां बोल कुछ आसान कर दिए गए। फिल्म मज़दूर में यह गीत बहुत ही अच्छे तरीके से पिक्चराइज़ किया गया। फ़िल्मी गीत के तौर पर भी यह बहुत हिट हुआ था। 
बहुत से स्टेजों पर इसका मंचन भी हुआ। भविष्य भी इसी तरह का लगने लगा लेकिन अचानक कोरोना का माहौल किसी खतरनाक और अदृश्य बम की तरह प्रकट हुआ। शाहीन बाग़ जैसे अंदोलन भी रोकने पड़े और  भी। हमारे दुश्मनों के लिए तो कोरोना किसी सुनहरी अवसर की तरह आया। मज़दूरों को मांगना पड़ गया। अन्नदाताओं को मांगना पड़ गया। कोरोना के इस माहौल ने मज़दूरों की बेबसी और बढ़ा दी। लॉक डाउन मार्च महीने के आखिर में शुरू हुआ था। मार्च महीने की 25 तारीख को लॉक डाउन का पहला दिन था। तब तक मज़दूरों को उनके वेतन नहीं मिले थे। दिहाड़ीदार लोगों के घरों में राशन भी ज़्यादा नहीं होता। दो चार दिन में ही भूखे मरने की नौबत आने लगी। सरकार की तरफ से बहुत से प्रचार हुए। बहुत से नंबर जारी किये गए। कुछ बारसूख़ लोगों ने राशन भी बंटवाया और अपनी अपनी फोटो भी खिंचवाई। इस सारी प्रक्रिया में राशन पहुंचा सिर्फ बारसूख़ लोगों के अपने अपने जानकार घरों में। ज़रूरतमंद  लोग फिर भूखे रह गए। 
उनका दर्द किसी ने समझा तो बस मज़दूर संगठनों ने। मज़दूर संगठनों ने अपने बलबूते भी अपने फंड एकत्र किया और समाजिक संगठनों से भी सम्पर्क किया तब कहीं जा कर बहुत से ज़रूरतमंद घरों में राशन पहुंचा। इस सारे प्रयास के बावजूद वह राशन एक दो सप्ताह तक ही चला। राशन घटता गया और ज़रूरतमंद लोगों की संख्या बढ़ती गई। मज़दूर संगठन भी इतना राशन लाते? उनको भी वेतन नहीं मिले थे। बहुत से लोग सिर्फ पेंशन पर हैं। इसके बावजूद दर्द का यह रिश्ता काम आया और लोग एक दुसरे के लिए कुछ न कुछ करते रहे। इस दर्द को दर्शाती बहुत सी सच्ची कहानियां सामने आयीं। इन सच्ची कहानियों के बावजूद हकीकत बेहद कठिन और कड़वी होती चली गई। दूध नगद लेना पड़ता। बुखार हो तो दवा-दारू भी नगद ही मिलता। सब्ज़ी भी नगद लेनी पड़ती। गैस सिलेंडर भी सभी तक तो नहीं पहुंचे। मज़दूरों के परिवार हिम्मत हारते चले गए। किसी के गाँव में उसके पिता ने दम तोड़ दिया, किसी की बेटी चल बसी, किसी के मां बीमार हो गई और किसी के भाई को बुखार ने जकड़ लिया। एटक के लोग उन्हें गांव जाने के लिए कर्फ्यू पास बनवाने में मदद करते रहे लेकिन सैंकड़ों किलोमीटर दूर जाना आसान कहां था? शहर से बाहर जाती टैक्सियों पर कीमतों का कोई नियंत्रण नहीं था। नवयुवा उम्र की 17 वर्षीय बेटी का देहांत हह गया तो अमेठी जाने के लिए टेक्सी वाले ने 18 हज़ार रूपये मांगे। यह पैसे उस मज़दूर ने गांव पहुंच कर अपने गहने बेच कर दिए। यहां न कोई धर्म कर्म करने वाला समाजिक संगठन काम आया और न ही कोई सरकार काम आई। न ही वोटें मांगने वाले किसी नेता ने उसका हाल पूछा और न ही तीर्थ यात्रायें करवाने वाले लोगों में से किसी ने उसके पास आ कर पूछा-भाई अपनी बेटी को आखिरी विदा देने कैसे जाओगे? मज़दूर की बेबसी उसकी बेटी की जान भी ले गयी। उसकी बेटी बुखार से तड़पती रही, पापा पापा पुकारती रही लेकिन उसका मज़दूर पापा उसके पास उसके जीते जी नहीं पहुंच सका। इस सारी कहानी को आप पढ़ सकते हैं हमारे सहयोगी डिजिटल प्रकाशन कामरेड स्क्रीन में बस यहां क्लिक कर के। काम आया तो मज़दूर संगठन एटक। एटक के लोगों ने सारा प्रबंध किया। फिर भी एक टीस तो हमेशां उसके उसके दिल में रहेगी ही। मज़दूर के दिल में छुपी यह आहें ही एक दिन तूफ़ान बन कर उठेंगी। कोरोना के कहर से भी मज़दूरों और किसानों की क्रान्ति नहीं रुकने वाली। यह हो कर ही रहेगी। इसका यकीन आज भी हर मज़दूर के दिल में है। 
आज वह कोरोना के हालात से परेशान है। उसका  तो अपने वेदों के मुताबिक हमें जीने के लिए दो वक़्त का राशन दे दो या हमें अपने गांव जाने के लिए किसी बस/ट्रक/गाड़ी का प्रबंध कर दो। हमें कोरोना के चैंबर में भूख से मरने के लिए मत छोडो। 
तकरीबन 485 मज़दूरों के लिए राशन और पैसों की मांग को लेकर कुछ मज़दूर प्रतिनिधि एटक के नेताओं से मिलने पहुंचे। उन्हें एक स्थानीय स्कूल में ठहरया गया जहाँ उन्होंने मीडिया को भी अपना दर्द बताया। जितने मज़दूर प्रतिनिधि यहां पहुंचे उनके पीछे उनके घरों/कमरों में दस-दस,बीस बीस लोग थे। सोशल डिस्टेंस का नियम भंग न हो इस लिए यह उन सभी को यहाँ नहीं लाये। क्या दावों के मुताबिक इन मज़दूरों का कुछ बनेगा? इन्हें राशन मिलेगा? इन्हें अपने घर वापिस जाने के लिए कोई वाहन मिलेगा?इनका कहना यही है या हमें राशन दो या हमें वापिस भेज दो। समस्या बेहद विकराल है। 
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परछाइयाँ//जनाब साहिर लुधियानवी
आप जरा खुद आ कर देखिये ...!