शनिवार, जनवरी 04, 2020

नहीं रहे भगीरथ नाथ चोपड़ा

शोकाकुल परिवार के पास पहुंचे परवीन बांसल और अन्य 
लुधियाना: 4 जनवरी 2020: (रेक्टर कथूरिया और इर्द गिर्द डेस्क)::
ज़िंदगी इतनी भागदौड़ करवाती है कि सांस तक ले पाना कठिन सा लगने लगता है। इतने झमेलों में से एक छोटी सी उम्र को चुरा पाना भी कभी कभी नामुमकिन सा लगने लगता है। ऐसे में अगर कोई अच्छा दोस्त मिल जाये तो नामुमकिन भी मुमकिन जैसा लगने लगता है। कुछ इसी तरह मिले थे मित्र प्रदीप चोपड़ा जी। टीवी चैनल की नौकरी। हमारे रात्रि शिफ्ट वाले ग्रुप को खबरों के बुलेटिन तैयार करते करते आधी रात हो जाती। टीवी चैनल से घर लौटना आधी रात के समय बहुत मुश्किल सा था। हालांकि चैनल की अपनी वैन भी थी जो मुझे घर छोड़ कर आती थी लेकिन कभी कभी उसका ड्राइवर रात की रोटी खाने चला जाता तो उसकी इंतज़ार के बिना कोई चारा न होता। एक रात इसी तरह ड्राईवर की इंतज़ार में चाय की चुस्कियां ले रहा था कि अचानक प्रदीप चोपड़ा जी सामने से आते नज़र आए। शायद उनके हाथ कोई देर शाम या रात को कोई बड़ी खबर लग गई थी। आते ही बोले मैं ज़रा फुटेज जमा करवा लून फिर मेरे साथ ही घर चलना। हम दोनों का घर एक दुसरे के काफी नज़दीक है इसका पता मुझे उसी दिन चला। ऊन बाज़ार जिसे पहले पहल मोच पुरा कहा जाता था और आजकल उसे ट्रंकों का बाजार भी कहा जाता है। उस बाजार के एक तरफ चोपड़ा जी का घर और एक तरफ हमारा घर। रास्ते की गलियों में अब छोटे छोटे बाजार खुल गए थे। उन्हीं दुकानों  में आती थी प्रदीप चोपड़ा जी के भाई की दुकान। हौज़री का काम था। प्रदीप जी के पिता जी भी अक्सर उसी दूकान पर बैठते।  कभी दुकान पर और कभी घर पर उनसे मिलना होता। बहुत ही प्यार और अपनत्व से सब का हालचाल पूछते। आशीर्वाद देते। साथ ही उनके चेहरे पर मुस्कराहट और चमक बढ़ जाती। बहुत मुश्किल था उनके सामने कोई झूठ बोल पाना। प्रदीप जी को कहीं ले जाना होता तो कोई न कोई बहाना सोचना पड़ता था। इस तरह उनके साथ एक स्नेह भी था और बड़ों की शख्सियत वाला डर भी था। उनके पास बैठ कर ज़िंदगी की चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत आती। अब वह नहीं रहे ,हिम्मत कौन देगा यह सवाल गंभीर बन कर खड़ा हो गया है।
मुझे याद है प्रदीप जी बताया करते थे। जब सभी भाईयों को उनका हिस्सा मिल गया तो बाकी बचे प्रदीप जी। अब इतनी दुकानें भी कहाँ से आतीं? परदीप जी ने पिता से पूछना मेरा क्या बनेगा? जवाब मिलता सबसे अच्छा। एक दिन प्रदीप जी ने पूछ लिया वह कैसे? मेरे हिस्से में तो दुकान ही नहीं बची। पिता जी बोले मैं तुझे एक नहीं कई दुकानें दूंगा। वास्तव में उन्होंने प्रदीप जी को अकाऊंट्स का काम सिखा दिया। बोले जहां जा कर भी काम करेगा समझना वह तेरी दुकान ही है। उसे बेगाना न समझना। अपना समझ कर ही काम करना।  सारा  इसी हिसाब किताब पर निर्भर होता है। आज प्रदीप चोपड़ा जी के पास बहुत सी फर्में अर्थात बहुत सी दुकानें हैं। उनके पिता मान्यवर भगीरथ नाथ चोपड़ा की की क्रिया बाजवा नगर के वेद मंदिर में थी। गरुड़ पुराण के पाठ का भोग और रस्म पगड़ी भी थी। मंदिर के हाल में आज कितने लोग आये--कितनी भीड़ थी--कैसे पूरा हाल भरा हुआ था--काश वह देख पाते। लग भी रहा था जैसे अभी कहीं से आ जायेंगे और उसी मनमोहक  मुस्कान से हम सब को हौंसला देंगें।  
प्रदीप चोपड़ा जी और परिवार के अन्य सदस्यों का दुःख बांटने के लिए हम सभी लोग भी पहुंचे। मेरे साथ डाक्टर भारत (एफ आई बी मीडिया), पत्रकार-सतपाल सोनी, पत्रकार एम एस भाटिया और कुछ अन्य लोग भी थे। हाल में बहुत से समाजिक और राजनीतिक लोग भी पहुंचे हुए थे। राजनीतिक और समाजिक चेतना को जगाने में अतिसक्रिय राजीव मल्होत्रा भी विशेष तौर पर पहुंचे हुए थे। टीवी चैनलों में कैमरामैन की ज़िम्मेदारी निभाने वाले मुकेश डोगरा भी आए। मानवता के दर्द को महसूस करने वाले पत्रकार जय कुमार भी अपनी टीम के साथ आये हुए थे। -रेक्टर कथूरिया