कृषि करमन पुरस्कार के रूप में मिली त्रिपुरा के योगदान को मान्यता
विशेष लेख शुभाषीष के चंदा*सभी तस्वीरें त्रिपुरा के कृषि विभाग से साभार |
सुनने में भले ही यह चमत्कार जान पड़े लेकिन ऐसा क्यों हो पाया इसका जवाब राज्य की दस वर्ष की अवधि वाली उस कृषि योजना में छिपा है जिसे केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित दो कार्यक्रमों से मजबूती मिली है। इन परियोजनाओं के नाम हैं राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और कृषि प्रशिक्षण एवं प्रबंधन एजेंसी।
राज्य में कृषि परिदृश्य
त्रिपुरा में भू-भाग 6 पहाडि़यों का मिला जुला रूप है। इस राज्य में मैदानी जमीन कम है और पहाड़ी इलाका ज्यादा। एक अनुमान के अनुसार राज्य में जो विभिन्न प्रकार की जमीनें उपलब्ध हैं, उनमें से 4000 वर्ग किलोमीटर पर्वतीय क्षेत्र हैं। 2300 वर्ग किलोमीटर की जमीन टीला यानि पहाडि़यों से बनी है, जबकि घाटी का इलाका 2249 वर्ग किलोमीटर और मैदानी इलाका 2042 वर्ग किलोमीटर है। यहां के अधिकांश किसान गुजारा करने वाले हैं और उनमें से लगभग 96 प्रतिशत किसानों की जोतें 0.5 से 1.25 हेक्टेयर रकबे वाली हैं। इन किसानों के बीच फसलों और पैदावार पर निवेश बहुत कम किया जाता है। राज्य का बुआई वाला इलाका कुल भू-भाग अर्थात 10,49,169 हेक्टेयर का 24 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय आंकडे 43 प्रतिशत हैं।
राज्य में इस समय मुख्य रूप से दो प्रकार की फसल व्यवस्थाएं प्रचलित हैं। पहली है स्थिर खेती जो मैदानी भागों में की जाती है और दूसरा तरीका है चलायमान खेती जो पहाड़ी इलाकों में प्रचलित है। अधिकांश किसान इन्हीं दो में से एक तरीका अपनाते है। जहां तक आधुनिक टैक्नोलॉजी इस्तेमाल करने का सवाल है वे पुराना तरीका पसंद करते हैं जिसके परिणामस्वरूप फसलों की उपज बहुत कम होती है। जहां तक खेती के पुराने तरीके का संबंध है, किसानों को उपलब्ध जमीन कम होती जा रही है। इसके साथ ही, भारत बंगलादेश सीमा पर कंटीले तार लगाए जाने के कारण भी खेती वाली जमीन का रकबा 27 हजार एकड कम हो गया है। पहाड़ी जमीन कटने से मिट्टी का धीरे-धीरे क्षय होता है जो मैदानी इलाके में काफी ज्यादा है। यह सचमुच ही खतरे का कारण बन रहा है। एक सरकारी अनुमान के अनुसार हर साल बहुत ऊंची जमीन से लगभग तीस लाख टन ऊपरी मिट्टी कटकर बह जाती है।
पुराने तरीके का सशक्तीकरण
उक्त बातों को देखते हुए शुरू-शुरू में यहां की चुनौतियां मुश्किल जान पड़ती है। राज्य कृषि विभाग को अनाज उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बनने की सोचना बड़ी चुनौती हो सकती है। राज्य कृषि विभाग ने एक बड़ा कृषि कार्यक्रम शुरू किया है जिसके अनुसार दस वर्षों में 1,16,867 हेक्टेयर जमीन के लिए सिंचाई सुविधाएं बढ़ाई जाएंगी। 1999-2000 की स्थिति के अनुसार सिर्फ 51 हजार हेक्टेयर के लिए सिंचाई सुविधाएं मौजूद थीं। इसी तरह से फसल सघनता वर्तमान 169 प्रतिशत से बढ़ाकर 283 प्रतिशत करने के लिए कई तरह की कोशिशें शुरू की गई हैं। चलायमान खेती के सुधरे तरीके शुरू किए गए हैं ताकि धान की उत्पादकता वर्तमान 600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (1999-2000) से बढ़ाया जा सके। इसके अलावा अधिक उपज देने वाली किस्मों के धान की खेती शुरू करने से पैदावार कम से कम 3500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर करने की कोशिशें शुरू की गई हैं। इसके लिए समन्वित कीट प्रबंधन, पौधों को पोषक तत्व देने वाले तत्वों की खपत बढ़ाना और अजैविक खाद के साथ बॉयो फर्टिलाइजर का इस्तेमाल शुरू करने को उच्च प्राथमिकता दी जा रही है।
भावी योजना और नया दृष्टिकोण
हर तरह की मुश्किलों के बावजूद खेती ही आर्थिक रूप से यहां के लोगों के गुजारे के लिए एकमात्र विकल्प जान पड़ती है। यह राज्य दो प्रकार के भू-भागों से बना है। पहला है- घाटी का इलाका और दूसरा- पहाड़ी क्षेत्र जहां संचार सुविधाएं और उद्योग धंधे लगभग मौजूद नहीं हैं।
राज्य कृषि विभाग ने मुश्किलों का सामना करने के लिए यहां विस्तार सेवाएं बढ़ाने, टैक्नोलॉजी मुहिम शुरू करने और किसानों को प्रशिक्षण स्कूलों तक पहुंचाने, धान की ज्यादा उपज देने वाली किस्मों की खेती शुरू करने, बॉयो-उर्वरकों का इस्तेमाल, जैविक खाद और कृषि आधारित उपकरणों का प्रयोग शुरू करने और किसान क्रेडिट कार्ड स्कीम के जरिये लोगों को ऋण सुविधाएं दिलाने की शुरूआत की है। ऐसे समय जब इस राज्य के लोगों की 27 हजार एकड़ जमीन सीमा पर कटीले तार लगाने के चलते परती पड़ी रही, राज्य सरकार ने वर्ष 2011 में दो लाख टन अधिक अनाज की उपज देखी जिसका कारण कृषि विभाग की चल रही कोशिशें बताया गया। वर्ष 2000 में दस वर्षों के लिए एक योजना तैयार की गई जिसके चलते अनाज उत्पादन में बहुत कामयाबी मिली और वर्ष 2010-11 में अनाज उत्पादन बढ़कर 7.12 लाख टन हो गया। 1999-2000 में सिर्फ 5.13 लाख टन अनाज की पैदावार हुई थी। लेकिन राज्य में वर्ष 2010-11 तक अनाज की लक्षित जरूरत 8.22 लाख टन आकलित की गई है जिसकी तुलना में कमी 1.10 लाख टन रहेगी। इस बीच सिंचाई सुविधाएं भी बढ़ाई गई हैं और अब 1,16,867 हेक्टेयर जमीन के लिए सिंचाई सुविधाएं जुटा दी गई हैं। फसल सघनता जहां 1999-2000 में 172 प्रतिशत थी वहीं दस वर्षों में यह बढ़कर 184 प्रतिशत हो गई है। रोचक बात यह है कि पहाड़ी किसानों को जहां झूम वाली जमीन से सिर्फ 600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की उपज मिली वहीं अब यह हर सीजन दुगुनी फसलें ले सकते हैं। इसके लिए उन्हें बॉयो-फर्टिलाइजर और जैविक खाद इस्तेमाल करनी पड़ती है।
आरकेवीवाई, एटीएमए एवं भागीदारी संप्रेषण
राज्य ने 2007-08 में राष्ट्रीय कृषि विकास योजना शुरू की गई थी। इसके चलते इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ गया है। राज्य सरकार इस योजना को अनाज उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के उद्देश्य से एक वरदान मानती है। राज्य ने इस प्रोग्राम के पहले चरण के अंतर्गत 41 परियोजनाएं शुरू की है जिनका बुनियादी तौर पर उद्देश्य है अनाज का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाना। इस कार्यक्रम के अंतर्गत कई प्रमुख योजनाएं शुरू की गई हैं जिनमें एसआरआई तकनीक के जरिये धान की पैदावार बढ़ाना, मिट्टी की शत-प्रतिशत जांच, उन्नत किस्म के धान की खेती, संकर मक्के की खेती, रेह वाली मिट्टी को ठीकठाक करना, छोटी सिंचाई सुविधाएं, मशीनी खेती, प्रमाणित सब्जियों के बीज उपजाना, ट्रू आलू बीजों को प्रोत्साहन देना और आलू की खेती को बढ़ावा देना शामिल है। अभी तक इन सभी परियोजनाओं में राष्ट्रीय कृषि विकास योजना पर सबसे ज्यादा यानि 177 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है।
किसानों को अधिक उपज देने वाली किस्मों को अपनाने के लिए प्रेरित करने, रोगों के कारण फसलों में नुकसान बचाने, मिटृटी की उत्पादकता बढ़ाने और कृषि प्रशिक्षण एवं प्रबंधन एजेंसी (एटीएमए) के जरिए किसानों को परंपरागत और खेती की नई जानकारी देने को सभी जिलों में महत्व दिया गया है। इसके लिए विस्तार सेवा का एक व्यापक तरीका निकाला गया है और एटीएमए ने विशेषज्ञों की तरफ से खेती के लिए एक प्रभावी, दुतरफा संप्रेषण मॉडल विकसित किया है। इसके जरिए पशुपालन, मछलीपालन और वानिकी के बारे में जानकारी दी जाती है। दूसरी ओर किसानों के लिए प्रशिक्षण और प्रदर्शन कार्यक्रम तथा खेतों में ग्रुप बैठकों जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इसी मॉडल के अनुरूप कृषि विभाग ने चालू वित्त वर्ष के दौरान एक और कार्यक्रम शुरू किया है जिसे टैक्नोलॉजी एक्सटेंशन केंपेन कहते हैं। इसमें एक ही छत के नीचे पौधे की रक्षा, जैविक और जैव उर्वरकों का इस्तेमाल, मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला और कार्यशाला रखे गए हैं। यह कार्यक्रम पिछले साल नवम्बर-दिसम्बर से पहले शुरू किया गया जिसके अंतर्गत किसानों को राज्य से बाहर ले जाकर ऐसी खेती दिखाई गई। इस प्रकार की हर यात्रा को केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने प्रायोजित किया।
ऐसी ही एक यात्रा के दौरान एक प्रतिभागी श्री हरेन्द्र नाथ खुश नजर आए। उनका कहना था कि इस यात्रा से उन्हें बहुत फायदा हुआ है। उन्होंने उन कीड़ों को पहचान लिया है जिनसे खेती को फायदा होता है। यात्रा के दौरान उन्होंने नये औजार और गहाई मशीने भी देखीं। एक अन्य किसान श्री आनंद देबबर्मन ने कहा कि ऐसे कार्यक्रम जारी रहने चाहिए। राज्य कृषि विभाग के अधिकारियों ने कहा कि किसानों के लिए ऐसी यात्रा का कार्यक्रम अगले वर्षों भी जारी रखा जायेगा ताकि वह आधुनिक टैक्नोलॉजी और जानकारी प्राप्त कर सकें। इससे खेती की उत्पादकता और किसानों की आमदनी बढ़ेगी, उनकी सोच बदलेगी और वे खेती को व्यापार समझकर संभालेंगे। {पीआईबी} 10-फरवरी-2012 17:17 IST
लेखक-पीआईबी अगरतला में मीडिया एंड कम्युनिकेशन ऑफिसर हैं