रविवार, दिसंबर 19, 2021

जब देवी कृपा करती है तब हर दुःख को वह हरती है

 बहुत ही समृद्धि वाला होगा इस नन्हीं परी का आना


लुधियाना
: 18 दिसंबर 2021: (रेक्टर कथूरिया//इर्दगिर्द डेस्क)

नन्ही परी सीरत कौर 
कोई ज़माना था जब हम जोश, सम्मान और स्नेह में गाया करते थे-- 

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा!

हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलिस्तां हमारा!

इस गीत को मैंने अपने रेडियो प्रोग्रामों में भी इस्तेमाल किया। इसके गायन से सबंधित जितने अंदाज़ थे तकरीबन सभी बहुत अच्छे गाए हुए हैं। फिर तकनीकी विकास शुरू हुआ तो इस भावना में तब्दीली जैसी रफ्तार भी तेज़ थी। पहले पहल कुछ अटपटा भी लगा फिर एक अहसास ज़ोर पकड़ने लगा की सारी दुनिया ही अपनी है। पूरा संसार अपने किसी गांव जैसा ही तो है।कभी कभार तो ऐसा भी लगता कि लोकल बात करनी मुश्किल है लेकिन विदेश में बात करनी आसान है। इस तरह दूरियां नज़दीकियों में बदलती रहीं। 

फेसबुक, व्टसप और वीडियो कालिंग ने तो इस अहसास को तेज़ी से बढ़ावा दिया। जो बच्चे विदेशों में गए हुए हैं रोज़ी रोटी के लिए उनसे बात करनी बेहद आसान हो गई है अब। उनसे आमने सामने जैसी बात का अहसास होता है। वहां के गलियां बाजार अपने अपने से लगते हैं। इसके बावजूद भी अगर हमें उनकी दूरी बार बार खलती तो उनको भी इस दूरी का अहसास शिद्दत से होता ही है। लेकिन तकनीक उस तकलीफ को कम कर देती। किसी ने इस तकलीफ को देखना हो तो उस ग़ज़ल से देख भी सकता है, सुन भी सकता है और समझ भी सकता है--चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है। इस गीत में इस दर्द का अहसास शिद्दत से होता है। इस गीत को फिल्म "नाम" के लिए लिखा था आनंद बक्शी साहिब ने और संगीत तैयार किया लक्ष्मी कान्त प्यारे लाल जी ने। आवाज़ दी थी पंकज उधास साहिब ने। इसकी आगे की पंक्तियाँ हैं:-

-चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है। 

बड़े दिनों के बाद, हम बेवतनों को याद -२

वतन की मिट्टी आई है, चिट्ठी आई है ...


ऊपर मेरा नाम लिखा हैं, अंदर ये पैगाम लिखा हैं -२

ओ परदेस को जाने वाले, लौट के फिर ना आने वाले

सात समुंदर पार गया तू, हमको ज़िंदा मार गया तू

खून के रिश्ते तोड़ गया तू, आँख में आँसू छोड़ गया तू

कम खाते हैं कम सोते हैं, बहुत ज़्यादा हम रोते हैं, चिट्ठी ...


सूनी हो गईं शहर की गलियाँ, कांटे बन गईं बाग की कलियाँ -२

कहते हैं सावन के झूले, भूल गया तू हम नहीं भूले

तेरे बिन जब आई दीवाली, दीप नहीं दिल जले हैं खाली

तेरे बिन जब आई होली, पिचकारी से छूटी गोली

पीपल सूना पनघट सूना घर शमशान का बना नमूना -२

फ़सल कटी आई बैसाखी, तेरा आना रह गया बाकी, चिट्ठी ...


पहले जब तू ख़त लिखता था कागज़ में चेहरा दिखता था -२

बंद हुआ ये मेल भी अब तो, खतम हुआ ये खेल भी अब तो

डोली में जब बैठी बहना, रस्ता देख रहे थे नैना -२

मैं तो बाप हूँ मेरा क्या है, तेरी माँ का हाल बुरा है

तेरी बीवी करती है सेवा, सूरत से लगती हैं बेवा

तूने पैसा बहुत कमाया, इस पैसे ने देश छुड़ाया

पंछी पिंजरा तोड़ के आजा, देश पराया छोड़ के आजा

आजा उमर बहुत है छोटी, अपने घर में भी हैं रोटी, चिट्ठी ...

हमारे लीडर विकास के ढिंढोरे पीटते रहे लेकिन असलियत में हमारे बच्चे विदेशों में जा बसे। उनकी कमाई से कर्ज़े उतरने लगे जो शायद वैसे सम्भव ही नहीं थे। उनकी कमाई से घरों में आधुनिक साज़ो सामान आने लगा। मुझे याद है बहुत से जानकार लोग जिनके घरों में पहला टीवी सैट उनके बच्चों की इस कमाई से ही आ पाया। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां फिर भी मन में बना रहा लेकिन एक दर्द भरी चाहत भी जागने लगी कब होगा हमारा देश इतना समृद्ध कि किसी बच्चे को रोज़ी रोटी और कर्ज़ों को उतारने के लिए विदेश न जाना पड़े। इस भावना को भी दशकों गुज़र गए। टीवी सैट ब्लैक ऐंड व्हाईट से कलर्ड हो गए। लेकिन आर्थिक कमज़ोरियाँ बनी रहीं। अब भी याद आतीं हैं सुरजीत पात्तर साहिब की पंक्तियां:

जो बदेसां च रुल्दे ने रोटी लई, ओह जदों देस परतणगे अपने कदी;

जां तां सेकणगे मां दी सिवे दी अगन; ते जां कबरां दे रुख हेठ जा बैहणगे!  

प्रदीप जी का बेटा अनुराग शर्मा
अपनी बेटी सीरत कौर के साथ 
समाज के इस तरह के दुःखों और दर्दों को लेकर बहुत पुराने वामपंथी सांस्कृतिक संगठन इप्टा से जुड़े प्रदीप शर्मा ने भी काफी कुछ किया। कई नाटक लिखे और उनके मंचन में भी सहयोग दिया। सख्त मेहनत करके भी इतना वक्त न बचता कि कला के लिए कुछ विशेष कर सकें। जो मन में है वो कर सकें। कोई नाटक, कहानी, नावल या कुछ और नया देख या पढ़ सकें।   

तंगियां, तुर्शियां और चिंता-फ़िक्र ज़िंदगी का एक अंग बने रहे। इन्होने कभी पीछा न छोड़ा। एक परछाईं की तरह यह सब साथ रहते। फिरइनकी आदत ही पक गई। ख़ुशी  आ भी जाती तो चिंता होने लगती कि शायद धोखे  आ गई होगी। या फिर अपने साथ छुपा कर कोई गम लाई होगी। वरना ख़ुशी और हमारे पास  कैसे? यहाँ याद आ रही है जनाब कतील शिफ़ाई साहिब की एक प्रसिद्ध ग़ज़ल की कुछ पंक्तियां:

वफ़ा के शीशमहल में सजा लिया मैनें,

वो एक दिल जिसे पत्थर बना लिया मैनें,

ये सोच कर कि न हो ताक में ख़ुशी कोई,

गमों की ओट में खुद को छुपा लिया मैनें,

कभी न ख़त्म किया मैंने रोशनी का मुहाज़,

अगर चिराग बुझा तो दिल जला लिया मैनें,

कमाल ये है कि जो दुश्मन पे चलाना था,

वो तीर अपने ही कलेजे पे खा लिया मैनें।

घुटन, तंगदस्ती और इन्हीं चिंताओं में शर्मा जी सरकारी नौकरी से रिटायर हो गए। ख़ुशी भी थी परिवार के साथ रहने की लेकिन गम था संगी साथी छूट जाने का। आगे गुज़ारा कैसे होगा इसकी चिंता भी थी। उस रिटायरमेंट के वक्त कुछ लाख रुपयों की रकम मिली जो शर्मा जी को भारी भरकम भी लगी। लेकिन यह भी एक खाम ख्याली जैसी ही बात थी। उसका नशा भी ज़्यादा देर तक रहने वाला नहीं था।  

मध्यवर्गीय परिवारों में पैसे आते बाद में हैं उनके खर्च होने की लिस्ट झट से बनी होती है। घर का राशन, बच्चों की स्कूल फीसें, कर्ज़े उतारने के लिए बनी हुई किस्तें, खुशियों गर्मियों में आना जाना-यह सब पहले से ही तैयार होता है। कभी कभार पीज़ा या गोलगप्पे बाजार में निकल कर खा लिए जाएं यही बहुत बड़ी पार्टी ह जाती है। बहुत बड़ी सेलिब्रेशन। बाकी चाहतें, बाकी इच्छाएं तो उम्र भर दबी ही रह जाती हैं। खुद की भी परिवार की भी। बस यही है ज़िंदगी का सच। 

इस परिवार के सदस्यों की भी कुछ अपनी अपनी इच्छाएं थे। सबसे छोटा बेटा अनुराग विदेश जाने की चाहत लिए बैठा था। उसके मन में यह बहुत देर से ही थी। उसे लगता था कोई बड़ा कदम उठा क्र ही घर की हालत बदल सकती है। छोटे बच्चे अक्सर ज़्यादा जोशीले होते हैं और ज़्यादा हिम्मती भी। वे रिस्क उठाने में बहुत तेज़ होते हैं। आर्थिक कमज़ोरी के हालात में बच्चे अपनी छोटी छोटी इच्छाएं भी बहुत बार सोच सोच कर बताते हैं कि कहीं घर का बजट न बिगड़ जाए। विदेश जाना तो बहुत बड़ी बात थी। लेकिन अनुराग ने हिम्मत की। अपनी इच्छा सभी को ज़ाहिर कर दी। कहा आप बेशक इन्वेस्टमेंट समझ कर कर दो। आप मेरे लिए कुछ खतरा उठा लो। परिवार के सभी लोगों ने भी ज़ोर देते हुए बेटे का ही साथ दिया। इस तरह वह रकम उसे विदेश भेजने में खर्च हो गई।  

इस तरह गुज़ारा फिर से तंग होने लगा। थोड़े बहुते तकरार भी होने लगे। जब जेब खाली हो तो गुस्सा भी खुद पर या अपनों पर ही आता है। जानेमाने लेखक और ज्योतिषी डा. ज्ञान सिंह मान कहा करते थे-बलशाली सब को खाता है-बलहीन खुद को खता है-ऐसी हालत में अपने ही लोग बुरे लगते हैं और फिर वही दिलासा भी देते हैं। काम भी आते हैं। उसे विदेश भेज दिया गया। फिर उसी बेटे ने वहां एक लड़की पसंद कर ली। लड़की पंजाब की ही थी मनप्रीत कौर। दोनों ने कहा कि हम माता पिता का आशीर्वाद लिए बिना शादी न करेंगे। दोनों पंजाब आए। धार्मिक रस्मों के बाद शानदार पार्टी भी हुई। फिर बात आई गई हो गई। कोरोना के कहर ने सब कुछ भुला दिया। आर्थिक तरक्की में इस बेटे ने भी बहुत योगदान दिया। शर्मा जी की एक आवाज़ और मिनटों में ही पैसे इनके खाते में पहुंच जाते हैं। 

पत्रकारिता में सक्रिय प्रदीप शर्मा 
खुशियां फिर से लौटने लगीं। चेहरे के साथ साथ आंखों की चमक भी बढ़ने लगी। माहौल फिर से खुशगवार हो गया। प्रदीप शर्मा जी स्टेज के साथ साथ पत्रकारिता में भी रूचि दिखाने लगे। ऑनलाइन मुशायरों में भी दिलचस्पी बढ़ने लगी। लेकिन खुशियां थोड़े समय की ही रहीं। हम जैसे आर्थिक कमज़ोरी के मारे लोगों की किस्मत में ख़ुशी की झलक भी आ जाए तो भी गनीमत है। 
कुछ देर बीमार रहने के बाद पत्नी बाला शर्मा का देहांत गया। सी एम सी अस्पताल में जो भरी भरकम खर्चा हुआ वह अलग हुआ। खर्चा कर के भी उसे बचाया न जा सका यह सदमा अलग लगा। मन ज़िंदगी से उचाट सा हो गया। लोग तो अर्धांगिनी की बात धार्मिक नुक्ते से करते हैं लेकिन कामरेडों के नज़दीक रहे शर्मा जी के लिए यह ज़िंदगी की हकीकत रही जैसे कि संवेदनशील लोगों के साथ होता ही है।  धर्म कर्म को बेहद आस्था से मानने वाले इसे भगवान की मर्ज़ी समझ लेते हैं और आम तौर पर दूसरी शादी भी कर लेते हैं लेकिन शर्मा जी ने ऐसा कभी न सोचा। जानेमाने प्रगतिशील लेखक जनाब सूर्यकांत त्रिपाठी जी की तरह वह ऐसा सोच भी न पाए। 
उन्हें बार बार लगता उनकी शख्सियत का आधा हिस्सा बाला शर्मा ही थी उसे तो मौत ने निगल लिया।शर्मा जी की बातें सुन कर लगता धर्म में बिलकुल सच कहा गया है कि पत्नी अर्धांगनी ही होती है। 
हर सुख दुःख साथ साथ बांटने वाली जादू की कोई परी जो हमारा हर दुःख हर लेती है। बदकिस्मती के हर वार को खुद पर ले लेती है लेकिन हमें गमों की आंच नहीं लगने देती। सचमुच देवी ही होती है पत्नी। जो पत्नी को देवी नहीं समझते उन्हें देवी पूजा का कोई अधिकार भी नहीं होना चाहिए। इस तरह के लोग कन्या को भी देवी नहीं समझ सकते। 

आज सुबह शर्मा जी का फोन आया। कहने लगे परी आ गई। कुछ हैरानी भी हुई क्यूंकि झट से बात समझ ही नहीं आई थी। । पूछा कुछ डिटेल में बताओ तो? कहने लगे मेरे घर पोती ने जन्म लिया है न्यूज़ीलैंड की धरती पर। बहु को पांच दिन पहले ही अस्पताल में दाखिल कर लिया गया था। अलग प्राइवेट कमरा। कमरे में बहु बेटे के शिव कोई नहीं जा सकता। वहां पर आई परी। कोई साईजेरियन ऑपरेशन का ड्रामा नहीं। सब कुछ बहुत ही सहज ढंग से हुआ। पूरी तरह प्राकृतिक। नाम रखा है सीरत कौर। गौरतलब है कि मां का नाम मनप्रीत कौर है। अनुराग और मनप्रीत की बेटी सीरत कौर।  प्रदीप शर्मा जी की पोती सीरत कौर। न्यूज़ीलैंड की नागरिकता  तो उसे जन्म के साथ ही मिल गई। लेकिन यह बेटी एक पुल बनेगी भारत और न्यूज़ीलैंड के दरम्यान। दरसल कहा जाए कि यह बिटिया उन लोगों का दूत है जो मेहनत में यकीन रखते हैं और मेहनती बन कर ही परिवार की गरीबी को समाप्त करते हैं। 

उनका फोन सुनते हुए मैंने पूछा अब कैसा महसूस हो रहा है? 

जवाब में गीत गाने लगे-

मेरे घर आई एक नन्ही परी ..चांदनी के हसीन रथ पे सवार--मेरे घर आई एक नन्हीं परी। साथ ही एक छोटी सी वीडियो भी भेजी जो उनके बेटे ने वहीँ न्यूज़ीलैंड  करके भेजी। देखिए आप भी एक झलक। 


इस गीत को लिखा था साहिर लुधियानवी साहिब ने, आवाज़ दी थी लता मंगेशकर जी ने संगीत से संवारा था ख्याम साहिब ने। फिल्म थी कभी कभी। बहुत हिट हुई थी यह फिल्म। गमों के रेगिस्तान में तपती रेत पर चलते हुए कभी कभी गुलिस्तान इसी तरह खिला करते हैं। जैसे सीरत कौर आई है। आप भी सभी इस नन्हीं परी को सुस्वागतम कहिए। --रेक्टर कथूरिया 

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