पहुंचे है कहां मालूम नहीं!
हम में से बहुत से लोगों की ज़िंदगी में ऐसा ही होता है। जाना कहीं और था लेकिन पहुंच कहीं और जाते हैं। यह बात शायद सन 1967 की है। उन दिनों एक फिल्म आई थी बहु बेगम। उसका एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। जिसके बोल थे-निकले थे कहां जाने के लिए-पहुंचे हैं कहां मालुम नहीं!
इस गीत को लिखा था साहिर लुधियानवी साहिब ने और संगीत से सजाया था जनाब रौशन ने। इस सदा बहार गीत को आवाज़ दी थी--आशा भौंसले ने।
आप इस गीत को यहां पढ़ भी सकते हैं--
निकले थे कहां जाने के लिये, पहुंचे है कहां मालूम नहीं!
अब अपने भटकते क़दमों को, मंज़िल का निशां मालूम नहीं!
हमने भी कभी इस गुल्शन में, एक ख्वाब-ए-बहार देखा था!
कब फूल झरे, कब गर्द उड़ी, कब आई खिज़ां मालूम नहीं!
दिल शोला-ए-ग़म से खाक हुआ, या आग लगी अरमानों में!
क्या चीज़ जली क्यूं सीने से उठा है धुआं मालूम नहीं !
बरबाद वफ़ा का अफ़साना हम किसे कहें और कैसे कहें!
खामोश हैं लब और दुनिया को अश्कों की ज़ुबां मालूम नहीं!
सोच रहा हूं लिखना किस पर है। आज ही के दिन कई बरस पहले हुआ था मेरी प्यारी सी बेटी का जन्म। वह बढ़ी हो कर पत्रकारिता की शिक्षा लेगी यह तो उस समय न मैंने सोचा था न ही उसकी मां ने। लेकिन यहां भी तो यही हुआ-- निकले थे कहां जाने के लिए--पहुंचे हैं कहां मालुम नहीं। कोशिश करूंगा प्राकृति और ज़िंदगी के इस तालमेल और उन सभी झमेलों का पता लगा सकूं जो अलग अलग नज़र आते हैं लेकिन अंदर से जुड़े हुए हैं। कुदरत के यही अंदाज़ हमारे सफर को शुरू कहीं और से करते हैं लेकिन ले कहीं और ही जाते हैं। कभी कभी लगता है हम तो बस इस खेल की कठपुतलियां मात्र हैं। खिलाड़ी तो कोई और ही है।
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