गुरुवार, फ़रवरी 23, 2012

मधुबाला: फूलों की राह पर भी जिसके हिस्से कांटें ही आये

उसके नाम पर न कोई एवार्ड न कोई सम्मान
अजीब इतिफाक है कि मधुबाला का जन्म हुआ 14 फरवरी, 1933 को दिल्ली में उस दिन; अब जिसे लोग वैलेंटायींनज़ डे कह के प्रेम सताह की शुरूयात करते हैं प्रेम का रास्ता अत्यंत सांकरा और दुर्गम होता है मधुबाला पर फिल्माया वह गीत तो बहुत लोग जोश्से सुनते हैं जब प्यार किया तो दर्नाक्य पर जब प्रेम कि बात सामने आती है तो बहुत से लोग दुबक जाते हैं  शायद वे भूल जाते हैं कि  इसी फिल्म में एक गीत और भी था कवाली के रूप में......तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे. गीत के बाद जब जीत हार का फैसला सुनाया जाता है तो उसे पता चलता है कि उसके हिस्से में तो कांटें आये हैं पर वह घबराती नहीं और कहती है...काँटों को मुरझाने का डर नहीं होता  मधुबाला ने इसे सारी उम्र निभाया भी. इसके बावजूद जमाने ने कुछ कम नहीं की छोटी सी उम्र में ही यादगारी फिल्में देकर जाने वाली मधुबाला को इस दुनिया ने एक भी सम्मान नहीं दिया

मधुबाला 23 फरवरी, 1969 को यह दुनिया छोड़ गयी अपने अभिनय में एक आदर्श भारतीय नारी की खूबियों को जीवंत करने वाली मधुबाला का अंदाज़ बस देखते ही बनता था चेहरे द्वारा भावाभियक्ति तथा नज़ाक़त उनकी प्रमुख विशेषता रही उनके अभिनय प्रतिभा,व्यक्तित्व और खूबसूरती को देख कर यही कहा जाता है कि वह भारतीय सिनेमा की अब तक की सबसे महान अभिनेत्री है वास्तव मे हिन्दी फ़िल्मों के समीक्षक अगर मधुबाला के अभिनय काल को 'स्वर्ण युग' की संज्ञा से सम्मानित करते हैं तो यह एक हकीकत है और 
उन लोगों के मूंह पर एक तमांचा भी जो कहते हैं कि मधुबाला को अभिनय के कारण नहीं खून्सूरती के कारण फिल्में मिलती थीं। मधुबाला, हृदय रोग से पीड़ित थीं इसका पता तो बहुत पहले बचपन में ही चल गया था लेकिन 1950  मे नियमित होने वाले स्वास्थ्य परीक्षण मे इस मामले कि गंभीरता और नाज़ुक स्थिति का भी चल गया था। सब कुछ मालूम होने के बावजूद मधुबाला मुस्कराती रहती. यह उसकी हिम्मत थी कि वह मौत कि आगोश में भी ज़िन्दगी कि बातें कर सकती थी. पर मुस्कराहट के परदे में सब कुछ कब छुपता है. एक दिन जब हालात बदतर हो गये तो ये छुप ना सका। कभी-कभी फ़िल्मो के सेट पर ही उनका तबीयत बुरी तरह खराब हो जाती थी। खून कि उलटी आने पर भी पूरी तरह सहज हो के जी लेना वास्तव में कितना असहज रहा होगा ? स्वस्थ्य बिगड़ चूका था. चिकित्सा के लिये जब वह लंदन गयी तो डाक्टरों ने उनकी सर्जरी करने से मना कर दिया क्योंकि उन्हे डर था कि वो सर्जरी के दौरान मर जायेंगीं। जिन्दगी के अन्तिम 9 साल उन्हे बिस्तर पर ही बिताने पड़े। 23 फ़रवरी 1969 को बीमारी की वजह से हुए ज़बरदस्त हार्ट अटैक के कारण उनका स्वर्गवास हो गया। 
उसके नाम पर बहुत बड़ी बड़ी सफल फिल्मों के नाम हैं, लोग हैं, बैनर हैं पर अवार्ड नहीं है  सम्मान के इस मामले पर उसके चाहने वाले ही एक दिन आगे आकर फिल्म जगत कि इस गलती को सुधरेंगे  (कार्तिक सिंह//फीचर डेस्क)  

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